एक्यूप्रेशर चिकित्सा (Acupressure Therapy)
एक्यूप्रेशर (Acupressure) का चलन बढ़ता जा रहा है, इस विषय पर इंटरनेट में भी हज़ारो की संख्या में लेख मौजूद है। मगर फिर भी जरूरी जानकारी का अभाव महसूस होता है। अगर आपको एक्यूप्रेशर में रुचि है या इस विषय मे जानने के इच्छुक है, तो आप सही पोस्ट रीड कर रहे है।
Acupressure Therapy Complete Guide In Hindi
एक्यूप्रेशर किसे कहते हैं? (What is Acupressure)
एक्यूप्रेशर एक चिकित्सा पद्धति है जिसमें पैरो, हाथों व चहरे के कुछ खास केन्द्रो पर दबाव डाला जाता है इन केन्द्रो को प्रतिबिम्ब केंद्र (Respopnse Center या Reflex Center) कहते है। प्रेशर देने से अवरुद्ध चेतना संचार का होने लगता है और रोग दूर होता है।
एक्यूप्रेशर का अर्थ (Meaning of Acupressure)
एक्यूप्रेशर (Acupressure) दो शब्दों एक्यूस+प्रेशर (ACUS+PRESSURE) से मिलकर बना है। जिसमें ACUS लैटिन भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है सुई और प्रेशर PRESSURE अंग्रेजी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है दबाव डालना। अर्थात ‘सुई समान किसी नुकीली चीज़ से रोग प्रतिबिम्ब केन्द्र पर दबाव डालना।’
यह एक प्राकृतिक क्रिया है। रोग की अवस्था में इन केन्द्रो पर जब प्रेशर देते है तो वहा पर दर्द अनुभव होता है। दबाव देने से शरीर में रोग की प्रतिक्रिया शक्ति जागृत होती है, जिससे रोग दूर होता है।
एक्यूप्रेशर का इतिहास (History of Acupressure Hindi)
एक्यूप्रेशर चिकित्सा (Acupressure Therapy) पद्धति कितनी पुरानी है तथ किस देश में इस का अविष्कार हुआ इस बारे में अलग-अलग विचार है। ऐसा माना जाता है कि 6000 वर्ष पूर्व भारत में इसका जन्म हुआ।
एक्यूप्रेशर पद्धति अति प्राचीन है, तथा भारतीय संस्कृति की ही देन है, क्योंकि इसका व्यापक वर्णन आयुर्वेद ग्रंथों में किया गया है। आयुर्वेद ने इन दबाव बिन्दुओं को ‘मर्म‘ की संज्ञा दी है तथा एक्यू-पंचर को ‘शुचि-भेदक‘ के नाम से वर्णित किया गया है। सुश्रुत-संहिता में भी शरीर के अनेक ऐसे बिन्दुओं का वर्णन है जिनमें प्रेशर देने से रोगों का निवारण किया जा सकता है।
भारत प्राचीन काल से ही ज्ञान के मामले में अग्रणी रहा है। जब विश्व को शून्य का भी ज्ञान नही था, तब हम ग्रह-नक्षत्र की दूरी की गणना करते थे। जब दुनिया पृथ्वी को चपटी समझती थी, तब हम पृथ्वी की अक्षांश और देशांतर (Longitude and latitude) का भी ज्ञान था। जब दुनिया को बुखार का भी इलाज नही पता था, तब सुश्रुत वैद्य पथरी, मोतियाबिंद, प्लास्टिक सर्जरी, हार्ट अटैक आदि रोगों की शल्य चिकित्सा (surgery) करते थे।
जब भी कोई विदेशी पर्यटक भारत भ्रमण करने के लिए आता था, तो भारतीय ज्ञान से प्रेरित होकर अपने साथ ले जाता। भारतीय भी ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ (समस्त धरती परिवार है) की भावना को आदर्श मानकर इछुक व्यक्ति को ज्ञान देने में जरा भी संकोच नही करते थे। फलस्वरूप चीनी यात्री भारत भ्रमण पे आये और एक्यूप्रेशर पद्धति को अपने साथ ले गए।
एक्यूप्रेशर विशेषज्ञ मानते है कि प्राचीन भारत में यह बहुत विकसित थी कई स्थानों में वर्णन है कि भगवान बुद्ध के चिकित्सक ‘जिवक’ हाथो से दबाव से रोगियों की चिकित्सा करते थे। बाद में जब मौर्य-वंश का साम्राज्य आया तब उस समय यह विद्या बौद्ध भिक्षुकों द्वारा अपनाई गई। भारत से लंका, चीन, जापान आदि देशों में बौद्ध भिक्षु इस ज्ञान को लेकर गये।
उल्लेख मिलता है कि छटी शताब्दी में बौद्ध भिक्षुओं ने इस ज्ञान को जापान पहुचाया, जापान में यह पद्धति ‘शिआस्तु” के नाम से जानी पहचानी गई। वहां पर इसे पूर्ण मान्यता प्राप्त हुई इसके कई संस्थान स्थापित किये गये इसकी लोकप्रियता का प्रमुख कारण यह रहा कि इस पद्धति के प्रति लोगो की पूर्ण सजगता। शिआस्तु में शि का अर्थ है अंगुली और आत्सु का अर्थ है दबाव।
चीन के चिकित्सकों ने भी इस पद्धति के आश्र्चयजनक प्रभाव को देखते हुए इसे व्यापक तैर पर अपनाया और इस पद्धति के लिए काफी प्रयास किया। इसी कारण यह चीनी चिकित्सा पद्धति के नाम से प्रसिद्ध है। समय के साथ-साथ जब इस पद्धति का चीन में काफी प्रचार-प्रसार हो गया तब तक यह पद्धति भारत में लुप्त हो चुकी थी।
आधुनिक युग मे एक्यूप्रेशर को प्रसद्धि दिलाने का श्रेय 19वीं सदी के अन्त में अमेरिकी चिकित्सक डा0 फिट्ज जेराल्ड (Dr. William Fritzgerald) को जाता है। डॉ फिट्ज जेराल्ड ने ही इस चिकित्सीय पद्धति को दुनिया के सामने उजागर किया था।
इन्होने अपने एक लेख में बताया है कि मनुष्य शरीर एक मशीन की तरह है। इस मशीन रूपी शरीर में कई संवेदनशील भाग है जैसे- मस्तिष्क, पाचनतन्त्र, आँख कान, नाक, जीभ, त्वचा, तंत्रिकातंत्र, रक्तसंस्थान, गुर्दे, फेफड़े आदि। ये सभी अंग, प्रत्यंग, संस्थान, अलग-अलग रहकर भी एक शरीर में एक साथ मिलकर काम करते है यह प्रकृति का चमत्कार ही है जैसे एक सफल मशीन में कई तरह मिलकर एक विशेष कलपुर्जे मिल कार्य को सम्पन्न करते है। लेकिन यदि कभी भाग में खराबी आ जाती है तो उस भाग से सम्बद्ध अदृश्य बटन को दबाने से मशीन का काम पुनः प्रारम्भ हो जाता है।
प्राचीन समय में हर महिला इसके महत्व को जानती थी, वह स्वयं की तथा बच्चों की चिकित्सा अपने इसी ज्ञान के आधार पर कर लेती थी है कि यह एक पूर्ण प्राकृतिक पद्धति हैं।
भारतीय द्वारा प्राचीनकाल से एक्यूप्रेशर का प्रयोग
आज भी अनेको आभूषण, वस्त्र, घर में किये जाने वाले कार्य, तथा श्रमशील कार्य एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति के ही रुप है। हाथों में कंगन, चूड़ी, घड़ी तथा पैरों में पायल, झांझर, गले में हार, चेन तथा छोटे-छोटे बच्चों के गले में व कमर में काला धागा पहनाना, कान में जनेऊ, हाथ में कलावा बांधना, कपड़े धोना, कुँए से पानी निकालना, रोटी बनाना, आटा गूथना, बिंदी लगाना, तिलक लगाना, कर्ण छेदन करना,ये सभी कहीं न कहीं एक्यूप्रेशर चिकित्सा के ही उदाहरण है।
एक्यूप्रेशर का सिद्धांत
एक्यूप्रेशर चिकित्सा (Acupressure Therapy) में शरीर को 10 भागो में बांटा हैं जिसे जोनोलाजी कहते है। शरीर के निदिष्ट जोन में दबाव देकर रोग को दूर भगाना “जोनेथैरपी” के नाम से जाना जाता है।
बाए हाथ की अंगुलियों हथेलियों पर दाब देकर शरीर के बाए भाग की चिकित्सा की जाती है तथा इसी प्रकार दाहिने हाथ पर दबाव देकर शरीर के दाहिने भाग की चिकित्सा की जाती है
जब रोग की पहचान व उपचार पैर के तलवों द्वारा किया जाता है तो यह पद्धति “फुट रिफ्लेक्सोलॉजी” के नाम से जानी जाती है। तथा जब शरीर में स्थित दाब-बिन्दुओं के माध्यम से जब उपचार किया जाता है तब इसे “शिआत्सु” कहते हैं।
एक्यूप्रेशर चिकित्सा के नियम
- जहाँ तक हो सके प्रेशर ऐसे स्थान पर बैठकर देना चाहिये जो स्थान हवादार हो। प्रेशर देने के लिए अधिकतम दर्द संवेदना वाले स्थान को ढूडना चाहिये।
- नये रोगों में सामान्यतः 2 मिनट व अधिकतम 6-8 मिनट तक दबाव देना चाहिये।
- दबाव की मात्रा, रोगी की आयु, अवस्था, तथा सहनशक्ति के अनुसार कम, मध्यम सीमाएं अथवा तेज दी जा सकती है।
- चिकित्सा लेते समय रोगी को अपना शरीर ठीला छोड़ देना चाहियें।
- रोगी को गहरे व लम्बे-लम्बे श्वास-प्रश्वास करने चाहियें।
एक्यूप्रेशर की सीमाए
एक्यूप्रेशर की कुछ सीमाए है नियम है जिनको ध्यान में रखना आवश्यक है-
- यदि रोगी जीर्ण स्थिति में है। वे लम्बे समय से बिमार, गंभीर अथवा जटिल रोगों से घिरा हुआ है तो एक्यूप्रेशर उपचार से पूर्ण लाभ नही हो पाता।
- केंसर, मोतियाबिंद, स्नायुओं की सूजन, पुराने गठियाआदि रोगों में भी एक्यूप्रेशर पूरा लाभ नही दे पाता।
- यदि दबाव देने के स्थान पर घाव, मस्सा, सूजन अथवा हड्डी टूटू हो तो उस स्थान में एक्यूप्रेशर चिकित्सा नही देनी चाहिए।
- पसीने से भीगा हुआ, दिल की धड़कन तेज, खाली पेट होने, या कोई दवा लेने के बाद एक्यूप्रेशर पद्धति से उपचार नही करना चाहिये।
- एक्यूप्रेशर में कई ऐसे पॉइंट है, जिसमे प्रेसर देने से गर्भपात तक हो सकता है, इसलिए गर्भवती महिला को यह चिकित्सा देते वक्त सावधानी बरतनी चाहिए।
एक्यूप्रेशर चिकित्सा सम्बंधित सावधानी
- एक्यूप्रेशर उपचार को इस बात का ज्ञान होना चाहिये कि उसे रोगी व्यक्ति को दबाव कब, कहाँ और कैसे देना है।
- रोग की सही दिशा व दशा व उससे सम्बन्धित एक्यू बिन्दुओं की सर्वप्रथम खोज करें, फिर दबाव देना प्रारम्भ करें।
- रोगी व्यक्ति में इस चिकित्सा पद्धति के प्रति विश्वास जगायें।
- प्रेशर देने के बाद दबाव छोडते समय हल्का झटका देते हुए उसे छोडना चाहिये।
- यदि किसी व्यक्ति का आपरेशन हुआ है तो चिकित्सक से पूछने के बाद 2 या 3 माह बाद ही एक्यूप्रेशर चिकित्सा दे सकते है।
रोगी को भी कुछ नियम व सावधानी का पालन आवश्यक है अन्यथा चिकित्सक की मेहनत का कोई लाभ नहीं होगा।
- चिकित्सक के निर्देशों का पालन करें।
- शराब आदि नशीले पदार्थों का सेवन न करें।
- गरम मसाले एव चटपटे पदार्थ तथा उत्तेजित करने वाली वस्तुओं का सेवन उपचार के दौरान नही करना चाहिये.।
- खट्टी खाद्य चीजों का सेवन भी वर्जित है।
एक्यूप्रेशर चिकित्सा के लाभ (Benefits Of Acupressure Therapy)
एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति के कई लाभ है। जिनमे से कुछ का वर्णन नीचे किया जा रहा है-
- एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति दूसरी चिकित्सा पद्धति की तरह जटिल नही है, इसे थोड़े से प्रयास से भी सीख सकता है।
- एक्यूप्रेशर पद्धति सरल, प्राकृतिक व प्रभावशाली, रोग निवारक चिकित्सा पद्धति है। इस उपचार पद्धति का काई भी प्रतिप्रभाव (Side effect) भी नही है।
- यह एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति न केवल शारीरिक रोगो को बल्कि मानसिक रोग की स्थिति में भी लाभदायी होता है।
- एक्यूप्रेशर द्वारा छोटी-मोटी बीमारियों का स्व उपचार किया जा सकता है।
- गंभीर बीमारी में एक्यूप्रेशर सहयोगी चिकित्सीय पद्धति के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
- आकस्मिक चिकिस्ता जैसे- हार्ट अटैक, करंट लगना आदि में 1-1 सेकिंड कीमती होता है। अधिकांश मरीज़ की मृत्यु हॉस्पिटल पहुंचने या चिकित्सीय सुविधा मिलने से पूर्व ही हो जाती है, ऐसे में एक्यूप्रेशर का उपयोग मदतगार हो सकता है।
- यह शरीर के आवश्यक तत्वों की वृद्धि करता है और शरीर में स्थित समस्त अन्त स्रावी ग्रथियों का कार्य नियमित करता है।
- यह सभी जानते है कि पूरे शरीर में प्राणिक ऊर्जा विधुत की तरह फैली हुई है इस पद्धति की सहायता से शरीर के अव्यवस्थित ऊर्जा प्रवाह को व्यवस्थित किया जा सकता है।
- एक्यूप्रेशर केवल रोगो को दूर करने की ही पद्धति नही है। बल्कि इससे रोगो को दूर भी रखा जा सकता है इसलिए हर स्वास्थ व्यक्ति को प्रतिदिन हाथ-पैर व सभी प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देना चाहिये। इससे एक अच्छे स्वास्थ्य को लम्बे समय तक बचाये रखा जा सकता है।
एक्यूप्रेशर देने की विधि
एक्यूप्रेशर दबाव देने के विभिन्न तरीके
विभिन्न प्रतिबिम्ब बिन्दुओं पर कितना प्रेशर दिया जाय यह उस अंग और रोगी की सहनशक्ति पर निर्भर करता है। प्रेशर देने के कुछ तरीके निम्न है-
- नाजुक जगहो पर दबाव- नाजुक जगह पर एक अंगुली या अंगूठे से बिल्कुल हल्का दबाव देना चाहिये।
- दो अंगुलियों का दबाव- एक अगुली के ऊपर दूसरी अंगुली रखकर फिर दोनों अंगुलियों से दबाया जाता है।
- हथेली का दबाव- शरीर के किसी अंग विशेष पर एक हथेली से या दोनों हथेली से दबाव दिया जाता है।
- रोटेटिंग दवाब- अर्थात अंगूठे या जिम्मी से एक दिशा में घुमाते हुए दबाव देना।
- पुश एण्ड पुल- किसी बिन्दु पर दबाव देना व छोड़ना, इसी किया को दोहराना।
- रबिंग – किसी बिन्दु पर घिसते हुए दबाव देना।
विधि के अर्न्तगत इन सब बातों को जानना आवश्यक है कि बिन्दुओं को पहचाना कैसे जाय, उन बिन्दुओं पर दबाव कितना दिया जाय? प्रेशर देने से पहले व प्रेशर देने के बाद क्या किया जाय? आदि। इसके अन्न्तगत कुछ मुख्य बाते निम्न है-
- प्रत्येक एक्यू बिन्दु पर एक समान दबाव दें। जितना रोगी सहन कर सकें।
- दिन में दो-तीन बार संबंधित बिन्दुओं पर दबाव देना चाहियें।
- दबाव देते समय यदि एक्यू बिन्दु के आस-पास सूजन या लाली दिखाई पड़े जो अनावश्यक दबाव देना छोड़ दे।
विशेष- ध्यान रखें, एक बिन्दु पर तब तक दबाव दें जब तक वहा पर धोड़ा दर्द का अनुभव न हों। फिर दबाव तब तक बनाये रखें, जब तक पीड़ा समाप्त न हो जाय, उस स्थान पर पीडा समाप्त होने का अर्थ है रोग का समाप्त हो जाना।
- एक विधि के अनुसार एक्यूप्रेशर देने के पूर्व एक्यू बिंदु पर थोड़ा टेलकम पाउडर छिड़क लिया जाय तो उस स्थान पर अच्छा दबाव दिया जा सकता है। पाउडर डालने से उस स्थान की त्वचा को नुकसान नहीं होता।
- अंगूठे या हथेली से दबाव देने के अतिरिक्त रगड़ लगाकर अर्थात हल्की मालिश विधि से भी यह किया जा सकता है। इसमें सर्वप्रथम प्रभावित प्रतिबिम्ब केन्द्र पर आगे-पीछे, अंगूठे-अंगुली, हथेली आदि से रगड़ा जाता है। पांवो के तलवों को भी दोनों हथेली से रगड़ा जाता है। इससे प्रतिबिम्ब केन्द्र उत्तेजित हो जाते है इसके बाद दबाव देने से उस प्राण प्रवाह के मार्ग में आई हुई बांधा दूर हो जाती है। ताप्पर्य यह है कि उस अंग विशेष से सम्बद्ध रोग दूर हो जाता है।
एक्यूप्रेशर दबाव कितनी देर तक देंना चाहिए?
समान्यतः 7-10 सेकेण्ड तक दबाव देना चाहिए। इतनी देर दबाव से स्वचलित तंत्रिका तंत्र उत्तेजित हो जाता है। अनुभवी उपचारक इस समय सीमा को अपने अनुभव के आधार पर घटा या बड़ा भी सकता है। 7-10 सेकेण्ड के दबाव 10 से 15 मिनट तक, प्रतिदिन प्रातःसाय या आवश्यकतानुसार दोपहर में भी दे सकते हैं।
एक्युप्रेशर चिकित्सा में कितना वक्त लगता है?
एक्यूप्रेशर / एक्यूपंचर अनुसार शरीर में कुल 365 एनर्जी पॉइंट होते हैं। अलग-अलग बीमारी में अलग-अलग पॉइंट असर करते हैं। कुछ पॉइंट कॉमन भी होते हैं। एक्युपंक्चर का एक सेशन लगभग 40-60 मिनट का होता है और एक बार में 15-20 पॉइंट्स पर पंक्चर किया जाता है।
एक्युप्रेशर में हर पॉइंट को दो-तीन मिनट दबाना होता है। आमतौर पर 3-4 सेशन में असर दिखने लगता है और 15-20 सिटिंग्स में पूरा आराम आ जाता है। हालांकि इलाज लंबा भी चल सकता है।
एक्यूप्रेशर उपचार में प्रयोग होने वाले विभिन्न उपकरण
एक्यूप्रेशर चिकित्सा देते समय चिकित्सक को कुछ उपकरणों की आवश्यकता होती है। इन उपकरणों के द्वारा रोगी, सीखकर, समझकर स्वय भी लाभ ले सकता है। वर्तमान में ये सभी उपकरण बाजार में उपलब्ध है। कुछ मुख्य-मुख्य उपकरण इस प्रकार है
पावर मैट ट्वीस्टर, मल्टीप्लेक्स मसाजर, स्पाइन रोलर, सेल्फ मसाजर, सुजोक रिंग, हैंड ग्रिप, अंगूठा जिम्मी, एनर्जी बाॅल, साइटिका एनर्जी रोल हैण्डिल, फिंगर मसाजर आदि।
एक्यूप्रेशर चिकित्सा से सम्बंधित कुछ जरूरी बातें
एक्यूप्रेशर के द्वारा उपचार करने वाला व्यक्ति भी चिकित्सक ही होता है, जो भी व्यक्ति उपचार के लिए आते है, वे उसे कुशल चिकित्सा के रूप में उस उपचारकर्ता के कुछ गुण होने आवश्यक है जैसे-
- उपचारकर्ता अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार होना चाहिये।
- उपचारकर्ता सेवाभावी व संतोषी होना चाहिये।
- उपचाकर्ता को शरीर किया विज्ञान का पूर्ण ज्ञान होना चाहिये।
- विभिन्न रोगो में उपचार देने हेतु वह कुशल होना चाहिये।
- उपचारकर्ता सरल स्वभाव का होना चाहिये।
- अपने रोगियों के प्रति सकारात्मक स्रोच रखता है। उन्हें हिम्मत बधाता हो कि वे शीघ्र स्वस्थ हो जाएगा।
- उपचार देते समय वह अच्छे, बुरे सम्बन्धों को प्राथमिकता न दे, अपितु सभी के साथ सौहार्दपूर्ण व्यवहार करे।
- प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति के अन्र्तगत जब कोई भी व्यक्ति, किसी भी प्रकार की उपचारात्मक चिकित्सा लेता है। तो उस समय शरीर के विजातीय द्वथ्य बाह निकलते है या निकलने का प्रयास कर रहे होते है। उस समय हो रही प्रतिक्रियाओं से घबराना नहीं चाहियें। उस समय उपचार कर्ता पर पूरा विश्वास रखना चाहिये धैर्य नहीं खाना चाहिये। ये प्रतिकियात्मक लक्षण निम्न हो सकते हैं जैसे-
- उपचार के समय शरीर सहज होने के कारण नीद आने लगती हैं। ऑतो से उत्सर्जी पदार्थों का निष्कासन होता है।
- स्त्रियों में उपचार के समय श्वेतप्रद जैसा स्त्राय होने लगता है। उपचार के समय उत्सर्जी तत्व कोड़े-फुन्सी, दान जैसे बनकर उभरते हैं।
- उपचार के दौरान रोगी शांत व गहरी निद्रा में सो जाता है।
- कभी-कभी रोगी अपने आसुओं के माध्यम से प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। उसका आसुओं को रोकना लगभग असंभव है।
- यूरिन की मात्रा बढ़ जाना अथवा कभी–कभी दस्त जैसी स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है।
- छींक आने लगती है।
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