आर्य समाज (Arya Samaj)
आर्य समाज (Arya Samaj)
आर्य समाज (Arya Samaj) एक समाज सुधार संगठन है, जिसकी स्थापना स्वामी दयानंद सरस्वती ने 10 अप्रैल, 1875 ई. (चैत्र शुक्ल 5, 1932 वि.) को की थी। जब पश्चिमी शिक्षा और विज्ञान के प्रभाव से शिक्षित भारतीय समुदाय ईसाई धर्म की ओर झुक रहा था, तब इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से बंगाल में ब्राह्म समाज व प्रार्थना समाज जैसे संगठनों के अनुरूप आर्य समाज की स्थापना की गई।
आर्य समाज का लक्ष्य था-‘वेदों की ओर पुन: लौटो’। वह समाज को वैदिक व्यवस्था के आधार पर संगठित करना चाहता था और पुराणपंथ को छोड़ने पर बल दे रहा था।
समाज सुधारक आंदोलन
आर्य समाज ने बहु, ईश्वरवाद और मूर्तिपूजा का बहिष्कार करके एकेश्वरवाद की स्थापना की। उसने जाति-पाँति के बंधनों और बाल-विवाह का विरोध किया। आर्य समाज ने समुद्र पार यात्रा करने, स्त्री शिक्षात तथा विधवा विवाह का समर्थन किया। भारत की दलित अथवा पिछड़ी जाति का उत्थान भी आर्य समाज का लक्ष्य था। उसने शुद्धि आंदोलन द्वारा गैर हिंदुओं को हिंदू बनाया।
आर्य समाज का आदर्श वाक्य है: कृण्वन्तो विश्वमार्यम्, जिसका अर्थ है – विश्व को आर्य बनाते चलो।
शिक्षा के क्षेत्र में भी आर्य समाज ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया। पहले तो केवल संस्कृत शिक्षा पर जोर दिया गया, किंतु बाद में लाहौर में दयानंद ऐंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना करके अंग्रेजी शिक्षा पर भी ध्यान दिया। कट्टर आर्य समाजी आधुनिक जीवन को वैदिक आदर्शों के साँचे में ढालने पर जोर देते रहे और 1902 ई. में उन्होंने हरिद्वार में गुरुकुल काँगड़ी की स्थापना की, जहाँ विज्ञान समेत सारे विषयों की शिक्षा हिंदी के माध्यम से दी जाने लगी।
स्वामी दयानंद ने समस्त भारत का दौरा करके मुख्य-मुख्य नगरों में आर्य समाज स्थापित किया उन्होंने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए पुस्तकें भी लिखीं, जिनमें ‘सत्यार्थप्रकाश’, ‘संस्कार विधि’ और ‘ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका’ प्रमुख हैं स्वामी दयानंद के बाद भी आर्य समाज का आंदोलन जारी है और लगातार प्रगति कर रहा है। इसके द्वारा अनेक स्कूल, कॉलेज, गुरुकुल, संस्कृत पाठशालाएँ, कन्या पाठशालाएँ और अनाथालय स्थापित किए गए हैं। उत्तर भारत में और विशेषतया पंजाब में आर्य समाज का विशेष प्रभाव है ।
आर्य समाज के 10 नियम
आर्य समाज के समस्त विधान की आधारशिला निम्नलिखित दस नियम हैं-
- सब सत्य, विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका आदि मूल परमेश्वर है।
- ईश्वर सच्चिदानंदस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करने योग्य है।
- वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढना – पढाना और सुनना – सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।
- सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोडने में सर्वदा उद्यत रहना चबुये।
- सब काम धर्मानुसार, अर्थात सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहियें।
- संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
- सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य वर्तना चाहिये।
- अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये।
- प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से संतुष्ट न रहना चाहिये, किंतु सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये।
- सब मनुष्यों को सामाजिक, सर्वहितकारी, नियम पालने में परतंत्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम पालने सब स्वतंत्र रहें।
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