अशफ़ाक उल्लाह खां (Ashfaqulla Khan)
अशफ़ाक उल्लाह खां (Ashfaqulla Khan) अशफाकउल्ला खान का जन्म 22 अक्तूबर, 1900 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में हुआ था। अशफाक एक क्रांतिकारी और स्वाधीनता सेनानी थे, जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया। वे भारत के महानतम शहीदों में शामिल किए जाते हैं।
अशफ़ाक उल्लाह खां जीवन परिचय (Biography of Ashfaqulla Khan In Hindi)
नाम | अशफ़ाक उल्लाह खां (Ashfaqulla Khan) |
उपनाम | ‘वारसी’ एवं ‘हसरत’ |
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जन्म | 22 अक्टूबर, 1900 ई. शाहजहाँपुर, भारत |
मृत्यु | 19 दिसम्बर, 1927 ई. फैजाबाद, भारत (फांसी) |
अभिभावक | पिता- मोहम्मद शफ़ीक़ उल्ला ख़ाँ, माता- मजहूरुन्निशाँ बेगम |
धर्म | इस्लाम |
नागरिकता | भारतीय |
प्रसिद्धि | स्वतंत्रता सेनानी |
आन्दोलन | भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम |
प्रमुख संगठन | हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन |
विशेष | अशफ़ाक उल्लाह खां भारत कब स्वतन्त्रता के लिए फांसी में चढ़ने वाले प्रथम मुस्लिम थे। |
सम्बंधित लेख | भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम |
अशफ़ाक उल्लाह खां पारिवारिक पृष्ठभूमि
अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ाँ के पिता का नाम शफीकउल्ला खान और माता का नाम बेगम मजहूर-उन-निशा था। वे बहुत सुंदर थीं। अशफाक चार भाइयों में सबसे छोटे थे। उनके बड़े भाई रियासतउल्ला खान पंडित रामप्रसाद विस्मिल के सहपाठी थे।
अशफ़ाक़ ने स्वयं अपनी डायरी में लिखा है कि उनके बाप-दादों के खानदान में एक भी ग्रेजुएट तक की शिक्षा न पा सका वहीं दूसरी ओर उनकी ननिहाल में सभी लोग उच्च शिक्षित थे। उनमें से कई तो डिप्टी कलेक्टर S.J.M (सब जुडीशियल मैजिस्ट्रेट) तक रह चुके थे।
शिक्षा औऱ प्रारम्भिक जीवन
अशफाक बड़े सुडौल, सुन्दर और स्वस्थ जवान थे। चेहरा हमेशा खिला रहता था और दूसरों के साथ हमेशा प्रेम भरी बोली बोला करते थे। अशफाक के मन मे बचपन से ही देश के प्रति अपार अनुराग था। देश की भलाई के लिये किये जाने वाले आन्दोलनों की कथाएँ वे बड़ी रुचि से पड़ते थे।
अपनी बाल्यावस्था में अशफ़ाक उल्लाह खां का मन पढ़ने-लिखने में नहीं लगता था। तैराकी, घुड़सवारी औऱ भाई की बन्दूक लेकर शिकार करने में इन्हें बड़ा आनन्द आता था।
कविता, ग़ज़ल के थे शौकीन
अशफ़ाक़ एक अच्छे कवि थे, औऱ मुशायरे में भाग भी लिया करते थे। कविता में वे अपना उपनाम हसरत लिखते थे। लेकिन उन्होंने कभी भी अपनी कविताओं को प्रकाशित कराने की चेष्टा नहीं की।
स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश
अशफ़ाक उल्लाह का बचपन से ही देश के प्रति अपार अनुराग था। देश की भलाई के लिये किये जाने वाले आन्दोलनों की कथाएँ वे बड़ी रुचि से पड़ते थे। बिस्मिल का ननिहाल पक्ष में सभी लोग उच्च शिक्षित थे। उनमें से कई तो डिप्टी कलेक्टर S.J.M रह चुके थे।
जिस कारण बचपन मे उनके मित्र अशफाक के पूर्वजों को -‘अंग्रेज़ों का समर्थक और देश विरोधी कहते थे।’ अशफाक इस कलंक को मिटाना चाहते थे। शायद इसलिए ही मुस्लिम होने के कारण भी अशफाक की मित्रता कट्टर आर्यसमाजी बिस्मिल की।
एक बार बिस्मिल ने जेल में एक किताब पढ़ी जिसमे उनके पूर्वजो द्वारा अंग्रेज़ों का सार्थकन करने की बाते कही गयी थी। इस बारे में अशफाक ने अपनी डायरी में लिखा था।
कांतिकारी नेता बिस्मिल से मित्रता
अशफाक देश को विदेशी सत्ता के चंगुल से जल्द-से-जल्द छुड़ाना चाहते थे। इसलिए वे क्रांतिकारियों से मिल गए। अशफाक को पता चला कि बिस्मिल क्रांतिकारियों के नेता हैं, तो उन्होंने उनसे दोस्ती करनी चाही।
अशफाक उल्लाह खान एक मुश्लिम थे जबकि बिस्मिल एक कट्टर आर्यसमाजी। उन तक पहुँचना मुश्किल था। चूंकि अशफाक के बड़े भाई बिस्मिल के सहपाठी थे, इसलिए उन्हें बिस्मिल से मिलने में आसानी होई। अलग-अलग धर्म होने के बावजूद भी दोनों के मध्य घनिष्ठ मित्रता हो गई। वे साथ-साथ रहने, खाने और काम करने लगे।
जब अशफाक जपने लगे राम का नाम
कहा जाता है कि- एक बार अशफाक बीमार पड़ गए, उन्हें तेज़ बुखार था। इस अवस्था मे वह ‘राम-राम’ पुकारने लगे। अशफाक के मुंह से राम के शब्दों को सुनकर सबको लगा ये हिन्दू देवता ‘राम’ का नाम जप रहे है। कट्टर मुस्लिमों को ये बात हज़म नही हुई। उन्हें काफिर कहने जाने लगा।
तभी किसी ने सबको समझाया कि वे अपने दोस्त रामप्रसाद विस्मिल को याद कर रहे हैं। तुरंत बिस्मिल को बुलाया गया और अशफाक ने बिस्मिल को गले लगा लिया। इस घटना से साबित होता है कि दोनों की दोस्ती कितनी पक्की थी।
हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में हुए शामिल
अशफ़ाक उल्लाह खां देश को स्वतंत्र कराने के लिए हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में शामिल हो गए। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन शचींद्रनाथ सान्याल द्वारा स्थापित संगठन था जिसका उद्देश्य हथियारबंद क्रांति के जरिए स्वतंत्रता हासिल करना था। ये संगठन ऐसे ऐसे पूंजीपतियों का भी विरोध करता था, जो गरीबों का शोषण करते और उन्हें गुलाम बनाते थे। रामप्रसाद बिस्मिल शाहजहाँपुर में संगठन के प्रभारी थे।
संगठन संचालन के लिए धन का प्रबंध
हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के पास लोग तो थे, लेकिन धन नहीं। उन्हें हथियार खरीदने और संगठन चलाने के लिए धन की जरूरत थी। कुछ क्रांतिकारियों ने अपने घर से लाकर, चंदा माँगकर और चोरी करके भी धन जुटाया, लेकिन वह पर्याप्त नहीं था।
इसलिए रामप्रसाद बिस्मिल ने गाँवों के सेठ और धनियों कोलूटना शुरू कर दिया। अशफाक भी अपने भाई की राइफल लेकर लूटपाट में शामिल होने लगे। लेकिन अपने ही देशवासियों को लूटना भी बिस्मिल को अच्छा नहीं लगता था। जब संगठन को धन की अत्यंत कमी हो गई तो उन्होंने कुछ अन्य उपाय करने का फैसला किया।
‘काकोरी कांड’ लूट को दिया अंजाम
एक दिन जब रामप्रसाद ट्रेन से लखनऊ जा रहे थे, तब स्टेशन पर गार्ड लोहे का बड़ा बक्सा डिब्बों में चढ़ा रहे थे। इससे उनके मन में विचार आया। क्यों न, इन बक्सों को ही लूट लिया जाए। बिस्मिल ने अपने संगठन के साथियों से इसकी चर्चा की। सबने उत्साहित होकर सहमति जतायी।
अशफाक ने लूट के निर्णय को टाल देने की सलाह दी। उन्हें लग रहा था कि ट्रेन लूटने का फैसला कुछ जल्दबाजी भरा है। यह लूट आम पुलिसवालों की नहीं, बल्कि पूरी सरकार पर चोट होगी, इसे सरकार हलके में नहीं लेगी। इसके बाद संगठन पर दमनात्मक कार्यवाही होगी। लोग पकड़े भी जा सकते हैं और उन्हें सजा भी हो सकती है।
लेकिन संगठन को पैसे की बहुत जरूरत थी और लूट के विचार से लोग उत्साहित भी थे, इसलिए अशफाक की सलाह नहीं मानी गई। रामप्रसाद ने स्टेशन पर ट्रेन के आने और जाने का समय नोट किया।
सबने तय किया कि बिस्मिल लूट की योजना को संचालित करेंगे। रामप्रसाद के साथ नो क्रांतिकारियों को डकैती की जिम्मेदारी सौंपी गई। बिस्मिल के साथ-साथ राजेंद्र लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह, शचींद्र बख्शी, चंद्रशेखर आजाद, मुकुंदीलाल, मन्मथनाथ गुप्ता, केशव चक्रवर्ती, बनवारीलाल और अशफाकउल्ला खान को इसके लिए चुना गया। बिस्मिल ने सबको आगाह किया कि लूट के दौरान कोई गोलीबारी नहीं करेगा। इस लूट को ‘काकोरी कांड’ कहा गया।
योजना के मुताबिक शाहजहाँपुर से लखनऊ जानेवाली ट्रेन को रोक बक्सा लूटना था। अशफाक ने चेन खींचकर ट्रेन रोक दी। जब गार्ड चैन खौंचनेवाले का पता करने आ गया, तो दो क्रांतिकारियों ने उसपर काबू कर लिया। दो क्रांतिकारियों ने ड्राइवर के पास पहुंच इंजन चालू रखने को कहा। एक-एक क्रांतिकारी ट्रेन के दोनों ओर खड़ा रहा।
यात्रियों को चुपचाप बैठे रहने की सलाह दी। उनसे कहा गया कि यात्रियों को कोई नुकसान नहीं पहुँचाया जाएगा। चार क्रांतिकारी गार्ड के डिब्बे में चढ़कर बक्सा उतार लाए। बक्से को तोड़ने के लिए हथौड़े मारने शुरू कर दिए। जब बक्से का ढक्कन थोड़ा खुल गया उसमे रुपए से भरे थैले निकाल लिये गए।
इस पूरे घटनाक्रम में रेल यात्री और ब्रिटिश अधिकारी चुपचाप बैठे रहे; क्योंकि वे समझ रहे थे कि यह डाकुओं का कोई बड़ा गिरोह है। पूरी डकैती सिर्फ दस लोगों ने की थी।
अशफाक उल्लाह खां की गिरफ्तारी कैसे हुई?
अशफाक की आशंका सही साबित हुई, पुलिस सबके पीछे हाथ धोकर पड़ गयी। एक माह बाद रामप्रसाद और अन्य साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया। अशफाक गन्ने के खेत में छिप गए। रात में उनके कुछ दोस्त उन्हें खाना दे जाते थे। कुछ समय बाद थककर पुलिस ने उन्हें खोजना बंद कर दिया। अशफाक अपना घर छोड़कर क्रांतिकारियों के मुख्यालय काशी (वाराणसी) के लिए रवाना हो गए। फिर काशी से वे बिहार चले गए और एक इंजीनियरिंग फर्म में नौकरी करने लगे।
अशफाक ने सोचा कि इंजीनियर बनकर वे देश की और अपनी भलाई कर सकते हैं। इसलिए विदेश में पढ़ाई की जानकारी लेने के लिए वे दिल्ली आ गए। वहां उन्हें अपने ही गाँव का एक पठान मिला। रात में वे उसी के घर पर रुके। सुबह दरवाजे पर दस्तक हुई। दरवाजा खोला तो पुलिस खड़ी थी। पुलिस ने अशफाक को गुरफ्तार कर लिया। उसी पठान ने इनाम के लालच में पुलिस को खबर कर दी थी।
अशफाक को मिली फांसी की सजा
काकोरी ट्रेन डकैती में शामिल चार क्रांतिकारियों (रोशन सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खान और राजेंद्र लाहिड़ी) को फांसी की सजा सुनाई गई।को फाँसी की सजा सुनाई गई, जबकि बाकी को उम्रकैद दी गई।
जेल में अशफाक बहुत धार्मिक हो गए और उन्होंने दाढ़ी बढ़ा ली और शायरी लिखने लगे। बिस्मिल ने जेल के अधिकारियों से छिपकर अपनी जीवनी लिखी थी। इसमें उन्होंने अपने क्रांतिकारी जीवन और अशफाक से मित्रता के बारे में विस्तार से लिखा था। दोनों की मित्रता की विडंबना भी यह रही कि दोनों को एक ही दिन अलग-अलग जेलों में फांसी पर लटकाया गया।
अशफ़ाक उल्लाह खां हँसते हँसते चढ़ गए थे फांसी
अशफाक उल्लाह खां को 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल में फांसी की सजा दी गई। अशफाक फाँसी के फंदे की ओर जाते समय बहुत प्रसन्न थे, उन्हें गर्व था कि वह पहले मुसलिम थे, जो देश के लिए फांसी पर लटकाए जा रहे थे।
अशफाकउल्ला खान को श्रद्धांजलि देते हुए भारत के पूर्व राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने उनकी तुलना भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, जतीन्द्रनाथ दास और नेताजी सुभाषचंद्र बोस से की थी। अशफाक ने ही भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों को प्रेरणा दी।
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