भुवनेश्वरी देवी (महाविद्या-4)
भुवनेश्वरी देवी 4 महाविद्या (Goddess Bhuvaneshwari Devi Hindi)
भुवनेश्वरी (Bhuveneshwari) अर्थात संसार भर के ऐश्वर्य की स्वामिनी। दशमहाविद्याओं में भगवती “भुवनेश्वरी” चतुर्थ विद्या है। जिस रूप में इन्होंने त्रिदेवो (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) को दर्शन दिये दिये थे। देवी भागवत में इस बात का उल्लेख मिलता है।
काली, तारा महाविद्या, षोडशी भुवनेश्वरी ।
भैरवी, छिन्नमस्तिका च विद्या धूमावती तथा ॥
बगला सिद्धविद्या च मातंगी कमलात्मिका।
एता दश-महाविद्याः सिद्ध-विद्याः प्रकीर्तिता: ॥
Bhuvaneshwari (sanskrit: भुवनेश्वरी) is the fourth amongst the ten mahavidya or Shivshakti goddesses in Hinduism, and an aspect of Devi as elements of the physical Cosmos in giving shape to the creation of the World.
इनका अमरनाम “राजराजेश्वरी” है। ये सिद्धी दात्री तथा सिद्ध विद्या है। इनके शिव “त्रयम्बक” हैं। संसार में जितनी भी प्रजा है सबको उसी त्रिभुवन व्याप्ता भुवनेश्वरी से अन्न मिल रहा है।
भुवनेश्वरी का अर्थ (Meaning of Bhuvaneshwari)
भुवनेश्वरी (Bhuvaneshwari) अर्थात संसार भर के ऐश्वर्य की स्वामिनी। ‘वैभव’ पदार्थों के माध्यम से मिलने वाले सुख-साधनों को कहते हैं। ऐश्वर्य-ईश्वरीय गुण है- वह आंतरिक आनंद के रूप में उपलब्ध होता है।
ऐश्वर्य की परिधि छोटी भी है और बड़ी भी। छोटा ऐश्वर्य छोटी-छोटी सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने पर उनके चरितार्थ होते समय सामयिक रूप से मिलता रहता है।
यह स्वउपार्जित, सीमित आनंद देने वाला और सीमित समय तक रहने वाला ऐश्वर्य है। इसमें भी स्वल्प कालीन अनुभूति होती है और उसका रस कितना मधुर है यह अनुभव करने पर अधिक उपार्जन का उत्साह बढ़ता है।
भुवनेश्वरी इससे ऊँची स्थिति है। उसमें सृष्टि भर का ऐश्वर्य अपने अधिकार में आया प्रतीत होता है। छोटे-छोटे पद पाने वाले-सीमित पदार्थों के स्वामी बनने वाले, जब अहंता को तृप्त करते और गौरवान्वित होते हैं तो समस्त विश्व का अधिपति होने की अनुभूति कितनी उत्साहवर्धक होती होगी, इसकी कल्पना भर से मन आनंद विभोर हो जाता है।
राजा छोटे से राज्य के मालिक होते हैं, वे अपने को कितना श्रेयाधिकारी, सम्मानास्पद एवं सौभाग्यवान् अनुभव करते हैं, इसे सभी जानते हैं। छोटे-बडे़ राजपद पाने की प्रतिस्पर्धा इसीलिए रहती है कि अधिपत्य का अपना गौरव और आनन्द हैं।
मां भुवनेश्वरी ही शताक्षी और शाकंभरी देवी के नाम से विख्यात हुई माता ने ही हिमालय की शिवालिक पर्वत श्रृंखला पर खड़े होकर 9 दिन और रात तक अश्रु वृष्टि की अत: माँ शाकंभरी देवी के नाम से सहारनपुर मे पुजित है।
यह वैभव का प्रसंग चल रहा है। यह मानवी एवं भौतिक है। ऐश्वर्य दैवी, आध्यात्मिक, भावनात्मक है। इसलिए उसके आनन्द की अनुभूति उसी अनुपात से अधिक होती है। भुवन भर की चेतनात्मक आनन्दानुभूति का आनन्द जिसमें भरा हो उसे भुवनेश्वरी कहते है। गायत्री की यह दिव्यधारा जिस पर अवतरित होती है, उसे निरन्तर यही लगता है कि उसे विश्व भर के ऐश्वर्य का अधिपति बनने का सौभाग्य मिल गया है। वैभव की तुलना में ऐश्वयर् का आनन्द असंख्य गुणा बड़ा है। ऐसी दशा में सांसारिक दृष्टि से सुसम्पन्न समझे जाने की तुलना में भुवनेश्वरी की भूमिका में पहुँचा हुआ साधक भी लगभग उसी स्तर की भाव संवेदनाओं से भरा रहता है, जैसा कि भुवनेश्वर भगवान को स्वयं अनुभव होता होगा।
भावना की दृष्टि से यह स्थिति परिपूर्ण आत्मगौरव की अनुभूति है। वस्तु स्थिति की दृष्टि से इस स्तर का साधक ब्रह्मभूत होता है, ब्राह्मी स्थिति में रहता है। इसलिए उसकी व्यापकता और समर्थता भी प्रायः परब्रह्म के स्तर की बन जाती है। वह भुवन भर में बिखरे पड़े विभिन्न प्रकार के पदार्थों का नियन्त्रण कर सकता है। पदार्थों और परिस्थितियों के माध्यम से जो आनन्द मिलता है उसे अपने संकल्प बल से अभीष्ट परिमाण में आकषिर्त-उपलब्ध कर सकता है।
भुवनेश्वरी मनः स्थिति में विश्वभर की अन्तः चेतना अपने दायित्व के अन्तगर्त मानती है। उसकी सुव्यवस्था का प्रयास करती है। शरीर और परिवार का स्वामित्व अनुभव करने वाले इन्हीं के लिए कुछ करते रहते हैं। विश्वभर को अपना ही परिकर मानने वाले का निरन्तर विश्वहित में ध्यान रहता है। परिवार सुख के लिए शरीर सुख की परवाह न करके प्रबल पुरुषार्थ किया जाता है। जिसे विश्व परिवार की अनुभूति होती है। वह जीवन-जगत् से आत्मीयता साधता है। उनकी पीड़ा और पतन को निवारण करने के लिए पूरा-पूरा प्रयास करता है। अपनी सभी सामर्थ्य को निजी सुविधा के लिए उपयोग न करके व्यापक विश्व की सुख शान्ति के लिए, नियोजित रखता है।
वैभव उपाजर्न के लिए भौतिक पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। ऐश्वर्य की उपलब्धि भी आत्मिक पुरुषार्थ से ही संभव है। व्यापक ऐश्वर्य की अनुभूति तथा सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए साधनात्मक पुरुषार्थ करने पड़ते है। गायत्री उपासना में इस स्तर की साधना जिस विधि-विधान के अन्तगर्त की जाती है उसे ‘भुवनेश्वरी’ कहते है।
भुवनेश्वरी का स्वरूप (The appearance of Bhuvaneshwari Devi)
भुवनेश्वरी का स्वरूप सौम्य है और इनकी अङ्गकान्ति अरुण है। इनके तीन नेत्र, चार हाथ और मस्तिष्त में चन्द्रमा विराजमान है। चार हाथों में माला-नियमितता, आशीर्वाद मुद्रा-प्रजापालन, गदा-शक्ति एवं राजंदंड-व्यवस्था का प्रतीक है। आसन-शासनपीठ-सवोर्च्च सत्ता का प्रतीक है।
महानिर्वाणतन्त्र के अनुसार– ‘सम्पूर्ण महाविद्याएँ इनकी सेवा में सदैव संलग्न रहती हैं।’ ऐसा भी कहा जाता है कि सात करोड़ महामन्त्र इनकी आराधना करते हैं। यह माता भुवनेश्वरी व्यक्त होकर ब्रह्माण्ड का रूप धारण करने में भी समर्थ हैं।
यह भक्तों को अभय एवं समस्त सिद्धियाँ प्रदत्त करती हैं। देवी भागवत के अनुसार दुर्गम नामक दैत्य के अत्याचारों से पीड़ित होकर देवताओं और ब्राह्मणों ने हिमालय पर्वत पर सर्वकारण स्वरूपा इन्हीं भुवनेश्वरी की आराधना की थी। इस आराधना से प्रसन्न होकर ये तत्काल प्रकट हो गई।
देवी भागवत में वर्णित मणिद्वीप की अधिष्ठात्री देवी हल्लेखा (हरिंग) मंत्र की स्वरूपा शक्ति और सृष्टि क्रम में महालक्ष्मी स्वरूपा-आदि शक्ति भगवती भुवनेश्वरी भगवान शिव के समस्त लीला विलास की सहचारी है। जगदम्बा भुवनेश्वरी स्वरूप सौम्य और अंग कांति अरुण है।
भक्तो को अको अभय और समस्त सिद्धियां प्रदान करना इनका स्वाभाविक गुण है। दस महाविद्याओं में यह पांचवे स्थान में परिगणित है। देवी पुराण के अनुसार मूल प्रकृति का दूसरा स्वरूप ही भुवनेश्वरी है। ईश्वर रात्रि में जब ईश्वर के
अंकुश और पाश इनके मुख्य आयुध है। अंकुश नियंत्रण का प्रतीक है और पाश राग और आसक्ति का। इस प्रकार स्वरूपा मूल प्रकृति ही भुवनेश्वरी है, जो विश्व को वमन करने के कारण, शिवमयी होने से ज्येष्ठा तथा कर्म – नियंत्रण, फलदान और जीवों को दण्डित करने के कारण रौद्री कहीं जाती हैं भगवान शिव का वाम भाग ही भुवनेश्वरी कहलाता हैं। भुवनेश्वरी के संग से ही भुवनेश्वर सदाशिव को सर्वेश होने की योग्यता प्राप्त होती है।
भुवनेश्वरी देवी की पूजा कैसे करें (Methods of Worshiping Goddess Bhuvaneshwari)
महानिर्वाण तंत्र के अनुसार सम्पूर्ण महाविद्याएं भगवती भुवनेश्वर की सेवा में सदा संलग्न रहती हैं। सात करोड़ महामंत्र सदा इनकी अराधना करते हैं। महाविद्याएं ही दस सोपान है । काली तत्व से निर्गत होकर कमला तत्व को दस स्थितियां है, जिनसे अव्यक्त भुवनेश्वरी व्यक्त होकर ब्रह्माण्ड का रूप धारण कर सकती हैं तथा प्रलय में कमला से अर्थात व्यक्त जगत से क्रमशः लय होकर कलिरूप में मूल प्रकृति बन जाती हैं। इसलिए इन्हे काल की जन्मदात्री भी कहा जाता है।
भुवनेश्वरी मन्त्र
ह्रीं
ऐ ह्रीं
ऐं ह्रीं ऐं
ऊपर कहे गए तीन मन्त्रों में से किसी भी एक मन्त्र के द्वारा साधक भगवती भुवनेश्वरी का पूजन भजन कर सकता है।
भुवनेश्वरी का ध्यान
उद्यदहर्युतिमिन्तुकिरीटां तुंगकुचा नयनत्रययुक्ताम् ॥
स्मेरमुखीं वरदांकुशपाशा-भीतिकरां प्रभजेद् भुवनेशीम् ॥
अर्थ:- देवी के देह की कान्ति उदय होते हुए सूर्य के समान है। देवी के ललाट में अर्द् चन्द्र, मस्तक पर मुकुट, दोनों स्तन ऊँचे, तीन नेत्र और चेहरे पर सदा हास्य तथा चारों हाथों में वर, अंकुश, पास और अभयमुद्रा विद्यमान है।
भुवनेश्वरी देवी की उपासना से लाभ (Bhuvaneshwari Devi Puja Benefits)
उपासनापरक ग्रन्थों में रुद्रयामलतन्त्र में वर्णित भुवनेश्वरी-रहस्य का विशेष महत्व है जो 22 पटलों में समन्वित है। जिसमे भुवनेश्वरी महाविद्या के विविध मन्त्र उनकी पुरश्चरण विधि, कवच, सहस्त्रनाम सहित पूजा-पद्धति सूर्य ग्रहण-चंद्र-ग्रहण, नवराति पूजन, कन्या सक्रांति जैसे अवसरों पर की जाने वाली सामयिक पूजा विधियों तथा शक्ति पूजा का वर्णन किया गया है। इनकी उपासना मे श्री यंत्र का भी महत्व बताया गया है।
भुवनेश्वरी मंत्र में महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती तीनों ही महादेवियों के बीज मंत्र हैं। इनकी पूजा उपासना करके जगत के जीवमात्र को सम्मोहित किया जा सकता है। इसका जप करने से शक्ति, बल, सामर्थ्य लक्ष्मी सम्पदा, वैभव और सभी प्रकार की उत्तम विद्याएँ, भक्ति, ज्ञान वैराग्य प्राप्त होता है। भुवनेश्वरी की उपासना पुत्र प्राप्ति के लिए विशेष फलप्रदा है।
किसी शुभ और उचित कामना को लेकर अनुष्ठान करने से या केवल मंत्र सिद्धि करने से भी सफलता और इष्ट सिद्धि होती है। भुवनेश्वरी देवी भद्रपास मास के शुक्ल पक्ष की द्वादश तिथि के दिन प्रादुर्भाव माना जाता है। इस दिन माता की उपासना का विशेष महत्व है।
देवी भुवनेश्वरी के प्रमुख मंदिर (Famous Temple of Bhuvneshwari Devi)
देवी भुवनेश्वरी के भारत वर्ष में अनेको मंदिर हैं, जिनमे से कुछ प्रमुख मंदिरों की सूची नीचे दी जा रही है।
- नैनातिवु (मनीपल्लवं) श्रीलंका के उत्तरी भाग में स्थित भुवनेश्वरी देवी का शक्तिपीठ है।
- हिमाचल प्रदेश के कुल्लू प्रांत दो किलोमीटर की दूर देवी भुवनेश्वरी का मंदिर है। भेखली देवी को जगन्नाथी के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर में देवी माँ कोई प्रतिमा नहीं, सिर्फ साधारण पिण्डी की पूजा की जाती हैं। यहाँ वर्ष में दो बार मेले का आयोजन होता है।
- उतरखण्ड पौड़ी गढ़वाल के बिलखेत, सांगुड़ा में स्थित मां भुवनेश्वरी का सिद्धपीठ है।
- भुवनेश्वरी देवी का एक मंदिर गुजरात के गोंडल में स्थित है जो 1946 में बनाया गया था।
- कामाख्या मंदिर क्षेत्र मे भुवनेश्वरी देवी का भी मंदिर स्थित है। ऐसा कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 7वीं से 9वीं शताब्दी के बीच हुआ था।
- माता भुवनेश्वरी का सबसे पुराना मंदिर उत्तरी गुजरात के गुंजा प्रांत में है।
- केरला के कालीकट में नो चिप्रा भगवती क्षेत्रम मंदिर है जहां 900 साल पुराना मंदिर है जिसकी मुख्य देवी भुवनेश्वरी अम्मा है।
- भुवनेश्वरी देवी का एक मंदिर तमिलनाडु के पुदुकोट्टई में स्थित है।
- महाराष्ट्र के सांगली जिले में बिलावली में कृष्णा नदी के तट पर देवी भुवनेश्वरी का मंदिर है।