एकलव्य : महान धनुर्धर
एकलव्य महाभारत का एक प्रसिद्ध पात्र था। वह राजा हिरण्य धनु नामक निषाद के पुत्र थे। एकलव्य का मूल नाम अभिद्युम्न था। इन्होंने गुरु द्रोण को गुरुदक्षिणा में अपना अंगुठा भेंट किया था।
एकलव्य (गुरु भक्ति का अनुपम उदाहरण)
नाम | एकलव्य |
पिता | हिरण्य धनु |
जाती | भील |
राज्य | श्रृंगबेर राज्य |
गुरु | द्रोणाचार्य |
प्रसिद्धि | धनुर्धर, गुरु के प्रति समर्पण |
अन्य जानकरी | गुरु के वचन को पूर्ण करने के लिए अपना अंगूठा काटकर गुरु को दे दिया। |
एकलव्य निबंध, जीवनी (Biography of Eklavya in Hindi)
पिता की मृत्यु के बाद वह श्रृंगबेर राज्य के शासक बने। अमात्य परिषद की मंत्रणा से उनहोने न केवल अपने राज्य का संचालन किया , बल्कि निषादों की एक सशक्त सेना गठित कर के अपने राज्य की सीमाओँ का विस्तार किया।
एकलव्य वनवासी था परन्तु स्वाभिमानी और वीर था। वह जाति से भील था जो निम्नकोटि की जाति समझी जाती थी। एकलव्य के पिता का नाम हिरण्यधनु उसी बन के अधिपति थे। एकलव्य अपने माता-पिता के साथ उस सुंदर वन में आनंदपूर्वक रहता था।
हिरण्यधनु चाहते थे कि उनका पुत्र भी उनकी भांति सदगुणी, साहसी व वीर योद्धा बने। दुर्भाग्यवश अपने राजा की ओर से युद्ध करते हुए हिरण्यधनु वीरगति को प्राप्त हुये। एकलव्य उस समय बालक ही था। पिता की मृत्यु के पश्चात् वह उस वन का दायित्व सम्भालने लगा।
गुरु द्रोणाचार्य को गुरु मानना (Story of Eklavya and Dronacharya in Hindi)
एकलव्य भी अपने पिता की तरह श्रेष्ठ धनुधर बनना चाहता था। लेकिन उसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी। इसलिए वह धनुर्विद्या सीखने के उद्देश्य से द्रोणाचार्य के आश्रम में आये किन्तु द्रोणाचार्य सिर्फ़ राजपुत्रों को ही धनुर्विद्या सिखाते थे।
निराश हो कर एकलव्य वन में चले गये। उन्होंने द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उस मूर्ति को गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगे । एकाग्रचित्त से साधना करते हुये अल्पकाल में ही वह धनु्र्विद्या में अत्यन्त निपुण हो गया।
अर्जुन के श्रेष्ठ धनुधर होने का भ्रम टूटा (Eklavya The Greatest Archer)
एक दिन पाण्डव तथा कौरव गुरु द्रोण के साथ आखेट (शिकार) के लिये उसी वन में गये जहाँ पर एकलव्य धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था।
एक कुत्ता एकलव्य को देख कर वह भौंकने लगा। कुत्ते के भौंकने से एकलव्य के अभ्यास में बाधा पड़ रही थी अतः उसने अपने बाणो से कुत्ते का मुँह बंद कर दिया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाया कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी।
कुत्ते के मुंह मे लगे बने को देखकर लौटने पर कौरव, पांडव तथा स्वयं द्रोणाचार्य यह धनुर्कौशल देखकर दंग रह गए और बाण चलाने वाले की खोज करते हुए एकलव्य के पास पहुँचे। उन्हें यह जानकर और भी आश्चर्य हुआ कि द्रोणाचार्य को मानस गुरु मानकर एकलव्य ने स्वयं ही अभ्यास से यह विद्या प्राप्त की है।
गुरु द्रोणाचार्य को अंगूठा देना (The Greatest Disciple of Dronacharya)
गुरु द्रोणाचार्य एकलव्य से बहुत प्रसन्न हुए। एकलव्य ने अपने व्यवहार से यह सिद्ध कर दिया कि किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता तुच्छता उसकी जाति पर निर्भर नही है।
द्रोणाचार्य – “वत्स, तुमने जो विद्या प्राप्त की है वह अपार है तुमने जो सिद्धि प्राप्त की है वह बहुत ही सराहनीय है। तुम्हारी यह साधना भविष्य में समस्त शिष्य वर्ग के लिए मार्गदर्शक बनेगी।”
एकलव्य – “गुरुदेव! यह सब आपके आशीर्वचन के कारण ही सम्भव हो पाया है।
द्रोणाचार्य – “एकलव्य, तुम्हारी तपस्या असाधारण है, परंतु तुम्हारे गुरु को आज अपना वचन भंग करना पड़ रहा है।”
एकलव्य “पूज्य गुरुदेव, आपका वचन कदापि भंग नहीं होगा। कहिये, मैं कैसे इस वचनभंग को रोक सकता हूँ। जो कुछ भी मेरा है, वह सब आपका ही है। मेरे प्राण भी आपके हैं।
द्रोणाचार्य – “एकलव्य, मैं गुरुदक्षिणा के रूप में तुम्हारे दाहिने हाथ के अँगूठे को माँग रहा है। क्या दे सकोगे, वत्स ?”
एकलव्य इस बिना हिचकिचा तुरन्त अपने दाहिने हाथ का अँगूठा बाण से काट दिया। रक्त की अविरल धारा के साथ एक शिष्य ने अपनी सबसे प्रिय वस्तु को गुरु चरणों में समर्पित कर दिया था।
गुरु द्रोण ने अर्जुन को श्रेष्ठ धनुधर होने का वरदान क्यों दिया?
आचार्य द्रोण राजकुमारों को धनुर्विद्या की शिक्षा दे रहे थे। उन राजकुमारों में अर्जुन के अत्यन्त प्रतिभावान तथा गुरुभक्त होने के कारण वे द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य थे।
एक रात्रि को द्रोणाचार्य के आश्रम में सभी शिष्य भोजन कर रहे थे। अकस्मात हवा के झौंके से दीपक बुझ गया। अर्जुन ने देखा अन्धकार हो जाने पर भी भोजन के कौर को हाथ मुँह तक ले जाता है।
इस घटना से उन्हें समझ आ गया कि निशाना लगाने के लिये प्रकाश से अधिक अभ्यास की आवश्यकता है। इसलि उन्होंने रात्रि के अन्धकार में भी लक्ष्य भेदने का अभ्यास करना आरम्भ कर दिया।
गुरु द्रोण उनके इस प्रकार के अभ्यास से अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने अर्जुन को कह दिया कि वह संसार के श्रेष्ठ धनुधर बनेगा।