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गणगौर व्रत कथा और पूजन विधि

Byvashi Vrat Tyohar
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गणगौर राजस्थान एवं सीमावर्ती मध्य प्रदेश का एक प्रमुख त्यौहार है जो चैत्र महीने की शुक्ल पक्ष की तीज को मनाया जाता है। गणगौर तीज को सौभाग्य तीज भी कहा जाता है।

इस दिन कुवांरी लड़कियां एवं विवाहित महिलायें शिव और पार्वती (गौरी) की पूजा करती हैं।


गणगौर व्रत क्यों मनाया जाता है?

गणगौर राजस्थान में आस्था प्रेम और पारिवारिक सौहार्द का सबसे बड़ा उत्सव माना जाता है। इस व्रत को कुँवारी लड़कियां मनपसंद वर प्राप्ति तथा विवाहित महिलायें अपने पति की दीर्घायु की कामना के लिए रखती है।

गणगौर = गण (शिव) + गौर (पार्वती)। गणगौर, होलिका दहन के दूसरे दिन (चैत्र कृष्ण प्रतिपदा) से चैत्र शुक्ल तृतीया तक, 18 दिनों तक चलने वाला त्योहार अथवा व्रत है।ऐसा माना जाता है कि माता गौरी होली के दूसरे दिन अपने पीहर आती हैं तथा 18 दिनों के बाद ईसर (भगवान शिव) उन्हें वापस लेने के लिए आते हैं, चैत्र शुक्ल तृतीया को उनकी विदाई होती है।

2021 में गणगौर व्रत कब है? (Gangaur Pooja Date & Muhurat)

इस साल 2021 में गणगौर तीज व्रत 15 अप्रैल को हैं।

प्रारम्भ:- सोमवार, 29 मार्च 2021
समाप्ति:- गुरुवार, 15 अप्रैल 2021

चैत्र शुक्ल पक्ष तृतीया तिथि आरंभ:- 14 अप्रैल दोपहर 12 बजकर 47 मिनट से।
चैत्र शुक्ल पक्ष तृतीया तिथि समाप्त:- 15 अप्रैल शाम 03 बजकर 27 मिनट तक।

गणगौर पूजा शुभ मुहूर्त:- 15 अप्रैल को सुबह 05 बजकर 17 मिनट से 06 बजकर 52 मिनट तक।


गणगौर व्रत कथा (Ganagaur Vrat Story In Hindi)

एक बार शिव-पार्वती विश्व पर्यटन पर निकले। महर्षि नारद भी उनके साथ थे। तीनों एक गाँव में गए। उस दिन चैत्र शुक्ला तृतीया थी। गांव को सम्पन्न स्त्रियाँ शिव पार्वती के आने का समाचार पाकर बड़ी प्रसन्न हुई और उन्हें अर्पण करने के लिए तरह-तरह के रुचिकर भोजन बनाने लगीं। परन्तु गरीब स्त्रियाँ जो जहां जैसे बैठी हुई थीं, वैसे ही हल्दी -चावल अपनी- अपनी थालियों में रखकर दौड़ीं और शिव-पार्वती के पास पहुँच गई।

अपनी सेवा में आई हुई गाँव की गरीब और सीधी-सादी महिलाओं को देखकर शिव गद्गद् हो गए और उनके सरल एवं निष्कपट भाव से अर्पण किये हुए पत्र- पुष्प को स्वीकार करके आनन्द-मग्न हो गए। अपने पति को हर्ष से भरा हुआ देखकर, सती पार्वती का मन भी आनन्द से नाच उठा। उन्होंने आगन्तुक महिलाओं के ऊपर सुहाग रस (सौभाग्य का टीका लगाने की हरदी) छिड़क दी। वे महिलाएँ सौभाग्य दान पाकर अपने अपने घर चली गई।

इसके बाद सम्पन्न कुलों की स्त्रियां आयी। वे सब सोलह श्रृंगार से सुसज्जित थीं। उन पर चमकते हुए आभूषणों और सुन्दर वस्त्रों की बहार थी। चाँदी और सोने के थालों में वे अनेक प्रकार के पकवान बनाकर लाई थीं। उन्हें देखकर आशुतोष शंकर ने पार्वती से पूछा-देवि! तुमने संपूर्ण सुहाग रस तो अपनी दीन पुजारिनों को दे दिया। अब इन्हें क्या दोगी?

पार्वती ने कहा- “इन्हें मैं अपनी अंगुली चीरकर रक्त का सुहाग रस दूंगी।” निदान जब वे स्त्रियाँ वहाँ आकर पूजन करने लगीं तब अन्नपूर्णा ने अपनी अंगुली चीरकर सब पर उसका रक्त छिड़क दिया और कहा-बढ़िया वस्त्रों और चमकीले प्रभूषणों से अपने अपने पतियों को रिझाने की अपेक्षा अपने प्रत्येक रक्त-बिंदु को स्वामी सेवा में अर्पण करके तुम सौभाग्यशालिनी कहलाओगी सेवा धर्म का यह अनोखा उपदेश प्राप्त करके वे कुल-वधूटियाँ अपने-अपने घरों को लौटीं और अपने परिवार की सेवा में रत हो गई ।

इसके उपरान्त उन्होंने स्वयं भी शिव से आज्ञा लेकर भगवान शिव तथा महर्षि नारद को वहीं छोड़-कुछ दूर जा नदी में स्नान किया और बालू के शिव बनाकर श्रद्धापूर्वक उनका पार्थिव पूजन किया। प्रदक्षिणा करके उन्होंने उस शिव प्रतिमा से यह निवेदन किया कि मेरे दिये हुए वरदान को सत्य करने की शक्ति आप में ही है। इसलिए प्राणेश्वर! मेरी सेवा से प्रसन्न होकर मेरे वचनों को पूर्ण करने का वरदान प्रदान कीजिए।

शंकर अपने पार्थिव रूप में साक्षात् प्रकट हुए और सती से कहा-देवि ! जिन स्त्रियों के पतियों का अल्पायु योग है उन्हें मैं यम के पाश से मुक्त कर दूंगा। पार्वती वरदान पाकर कृत्कृत्य हो गई और शिव वहाँ से अंतर्धान होकर फिर उसी स्थान पर आ पहुँचे जहाँ पार्वती उन्हें छोड़कर गई थीं।

पूजन के उपरान्त जब सती पार्वती लौटकर आई तो शिव ने उनसे देर से आने का कारण पूछा- प्रिये! देवर्षि नारद यह जानने को उत्सुक हैं कि तुमने इतना समय कहाँ लगाया?

पार्वती ने उत्तर दिया-देव! नदी के तीर पर मेरे भाई और भावज आदि मिल गए थे। उनसे बातचीत करने में विलम्ब हो गया। उन्होंने बड़ा आग्रह किया कि हम अपने साथ दूध-भात आदि लाए हैं, जिसे बहन को अवश्य खाना पड़ेगा। उनके आग्रह के कारण ही मुझे देर हुई है।

अपनी पूजा को गुप्त रखने के अभिप्राय से उन्होंने बात को इतना घुमा-फिराकर कहा था। यह भगवान शिव को अच्छा नहीं लगा। इसलिए उन्होंने पार्वती से कहा- यदि ऐसी बात है तो देवर्षि नारद को भी अपने भाई-भावज के यहाँ का दूध-भात खिलाने की व्यवस्था करो तभी कैलाश चलेंगे।

पार्वती बड़े असमंजस में पड़ी, क्योंकि उन्हें यह आशा नहीं थी कि शंकर उनकी परीक्षा लेने को तैयार हो जाएंगे। अस्तु उन्होंने मन ही मन शिव से प्रार्थना की कि उन्हें इस संकट से पार करें। फिर भी उन्होंने ऊपरी मन से कहा- अवश्य चलिए, वे लोग यहाँ से थोड़ी ही दूर पर हैं।

देवर्षि नारद को साथ में लिये हुए शंकर पार्वती सहित उसी ओर चलने को उठ खड़े हुए। कुछ दूर जाने पर एक सुन्दर भवन दिखाई पड़ने लगा। जब ये लोग उस भवन के अन्दर पहुँचे तो शंकर के साले और सलहज ने आगे बढ़कर उनका स्वागत किया एवं देवर्षि नारद सहित बड़े प्रेम से उन्हें दूध-भात खिलाया। दो दिन तक बड़ी अच्छी मेहमानदारी हुई। तीसरे दिन सब लोग विदा होकर कैलाश की ओर चल दिए।

पार्वती के इस कौशल और सामर्थ्य को देखकर शंकर प्रसन्न तो बहुत हुए, परन्तु धर्मानुष्ठान को असत्य के आवरण में दबाए रखना उन्हें अच्छा नहीं लग रहा था। वह उसका भंडाफोड़ करके निष्कपट होने की शिक्षा सती को अवश्य देना चाहते थे। क्योंकि निष्कपट नारी ही सृष्टिकर्ता की सर्वोत्तम कृति है। कुछ दूर पाने पर भगवान् शंकर ने कहा-अन्नपूर्णे! तुम्हारे भाई के घर पर मैं अपनी माला भूल आया है। पार्वतीजी माला ले पाने के लिए तत्पर हो गईं।

परन्तु इसी बीच देवर्षि नारद बोले-ठहरो अन्नपूर्णे! इस छोटे से काम को करने का अवसर मुझे ही प्रदान करो। आप यहाँ महादेव के साथ ठहरिए, मैं माला लेकर अभी आता हैं पार्वतीजी चकरा गई। उन्होंने शंकर के आशय को समझ लिया। परन्तु करतीं क्या ? देवर्षि नारद तो उनके गुरु थे। उनका आग्रह कैसे टालती? शंकर ने मुस्करा कर उन्हें आज्ञा प्रदान कर दी। नारद उधर की ओर चल दिए ।

किंतु उस स्थान पर पहुँचकर उन्होंने देखा कि न तो वहाँ कोई मकान है और न मनुष्य के रहने का संकेत। चारों ग्रोर घना जंगल ही जंगल। स्वच्छन्द रूप से दौड़ते-भागते हुए जंगली जानवरों का भुंड एवं सघन अंधकार। मेघों से धिरा हुआ आकाश और जंगल की बीहड़ता को बढ़ाने वाली सियारों और उल्लुओं की बोलियाँ।

नारद यह देखकर सोचने लगे कि मैं कहाँ आ पहुँचा। मगर आसपास का दृश्य वही था। केवल वे महल, मकान और सती के भाई भावज वगैरह वहाँ कुछ भी नहीं थे। दैवात् – उसी समय बिजली की चमक के प्रकाश में देवर्षि नारद ने एक पेड़ पर लटकती हुई माला देखी। उसे लेकर जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाते हुए वह शंकर के पास पहुँचे और उनसे जंगल की भयानकता का वर्णन करने लगे।

शिव बोले-देवर्षि ! आपने जो कुछ अब तक देखा यह सब आपकी शिष्या महारानी पार्वती की अद्भुत माया का चमत्कार था। वह अपने पार्थिव पूजन के भेद को आपसे गुप्त रखना चाहती थीं, इसीलिए नदी से देर से लौटकर आने के कारण को दूसरे ढंग से प्रकट किया।

देवर्षि बोले-महामाये! पूजन तो गोपनीय ही होता है, परन्तु आपकी भावना और चमत्कारी शक्ति को देखकर मुझे अपार हर्ष है। आप विश्व की नारियों में पातिव्रत धर्म की प्रतीक हैं। मेरा आशीर्वाद है कि जो देवियाँ गुप्त रूप से पति का पूजन करके उनकी मंगल कामना करेंगी उन्हें भगवान् शंकर के प्रसाद से दीर्घायु पति के सुख का लाभ होगा।


गणगौर व्रत पूजा विधि (Gangaur Vrat Sampuran Puja Vidhi in Hindi)

चैत्र कृष्ण पक्ष की एकादशी को प्रातः काल स्नानादि से निवृत होकर घर के ही किसी पवित्र स्थान पर लकड़ी की बनी टोकरी में जवारे बोए। इन जवारों को ही देवी गौरी और शिव का रूप माना जाता है।

गौरीजी की इस स्थापना पर सुहाग की वस्तुएँ (चूड़ियाँ, सिंदूर, महावर, मेहँदी, टीका, बिंदी, कंघी, शीशा, काजल आदि) को चंदन, अक्षत, धूप-दीप, नैवेद्यादि से विधिपूर्वक पूजन कर गौरी को अर्पण करें।

इस दिन से विसर्जन तक व्रती दिन में एक समय भोजन करेें। जब तक गौरीजी का विसर्जन नहीं हो जाता। प्रतिदिन दोनों समय गौरीजी की विधि-विधान से पूजा कर उन्हें भोग लगाए।

भोग के बाद गौरीजी की कथा सुने या सुनाए। इसके बाद गौरीजी पर चढ़ाए हुए सिंदूर से विवाहित स्त्रियां अपनी माँग भरे। कुँआरी कन्या प्रणाम कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करें।

चैत्र शुक्ल द्वितीया (सिंजारे) को गौरीजी को किसी नदी, तालाब या सरोवर पर ले जाकर उन्हें स्नान कराएँ। चैत्र शुक्ल तृतीया को भी गौरी-शिव को स्नान कराकर, उन्हें सुंदर वस्त्राभूषण पहनाकर डोल या पालने में बिठाएँ।

इसी दिन शाम को गाजे-बाजे से नाचते-गाते हुए महिलाएँ और पुरुष भी एक समारोह या एक शोभायात्रा के रूप में गौरी-शिव को नदी, तालाब या सरोवर पर ले जाकर विसर्जित करें। इसी दिन शाम को उपवास सम्पुर्ण होता है।

सावधानी:- गणगौर का प्रसाद पुरुषों को नहीं दिया जाता है।


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