गोपाल कृष्ण गोखले (Gopal Krishna Gokhale)
गोपाल कृष्ण गोखले (Gopal Krishna Gokhale) भारत के स्वतंत्रता सेनानी, समाजसेवी, विचारक एवं समाज सुधारक थे।
महात्मा गांधी को लोग ‘राष्टपिता’ और अहिंसा का पुजारी कहते है। उन्होंने देश-विदेश के असंख्य लोगों के जीवन को प्रभावित किया, किंतु वे स्वयं किससे प्रभावित थे, यह बहुत से लोग नहीं जानते हैं। वह थे-गोपाल कृष्ण गोखले। गोखले की महात्मा गांधी अपना गुरु व प्रेरणास्त्रोत मानते थे।
Gopal Krishna Gokhale Complete Info In Hindi
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पूरा नाम | गोपाल कृष्ण गोखले (Gopal Krishna Gokhale) |
जन्म | 9 मई, 1866 ई. कोल्हापुर, महाराष्ट्र (भारत) |
मृत्यु स्थान | 19 फरवरी, 1915 ई. मुम्बई, महाराष्ट्र |
मृत्यु कारण | मधुमेह, दमा |
पिता | श्री कृष्णराव श्रीधर गोखले |
माता | वालुबाई गोखले |
भाई-बहन | भाई- गोविंद गोखले (बड़े) बहन- 4 (अज्ञात) |
विवाह | प्रथम विवाह – सन 1880 में, द्वितीय विवाह – सन 1887 में |
सन्तान | 2 बेटियाँ – काशीबाई व गोदूबाई |
पार्टी / संस्थान | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी |
शिक्षा | Elphinstone College से स्नातक (Graduation) |
पेशा | प्रोफ़ेसर और राजनीतिज्ञ, |
प्रसिद्धि | स्वतंत्रता सेनानी, समाजसेवी, विचारक एवं समाज सुधारक; महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु। |
विशेष योगदान | ‘भारत सेवक समाज’ (सरवेंट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी) की स्थापना, भारतीय शिक्षण प्रणाली के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान। |
अन्य जानकारी | अपनी शिक्षा पूरी करने पर गोपाल कृष्ण कुछ दिन ‘न्यू इंग्लिश हाई स्कूल’ में अध्यापक रहे थे। बाद में पूना के प्रसिद्ध ‘फर्ग्यूसन कॉलेज’ में इतिहास और अर्थशास्त्र के प्राध्यापक रहे। |
गोपाल कृष्ण गोखले जीवनी (Gopal Krishna Gokhale Biography in Hindi)
गोपालकृष्ण गोखले का जन्म 9 मई 1866 को बम्बई प्रेसीडेंसी (वर्तमान मुम्बई) के रत्नागिरीगि जिले के कोटलुक ग्राम केे एक मध्यवर्गीय परिवार मे हुआ था।
पिता के असामयिक निधन ने गोपालकृष्ण को बचपन से ही कर्मठ बना दिया था।
गोपाल कृष्ण गोखले का परिवार (Family Life of Gopal Krishna Gokhale)
गोपाल कृष्ण गोखले के पिता का नाम कृष्णराव था, कृष्णराव कोल्हापुर रियासत के कागल नामक एक छोटे सामंती रजवाड़े में क्लर्क थे। बाद में वह पुलिस सब-इंस्पेक्टर बन गए। गोपाल गोखले की माता पढ़ी-लिखी नहीं थीं, फिर भी उन्हें ‘रामायण’, ‘महाभारत’ की अनेक कथाएँ-उपकथाएँ याद थीं।
गोपाल कृष्ण गोखले के बड़े भाई का नाम गोविंद और छोटे भाई का गोपाल था। उनकी चार छोटी बहनें भी थीं।
गोपाल कृष्ण गोखले की पत्नी और बच्चें (Marriage Life of Gopal Krishna Gokhale)
गोपाल कृष्ण गोखले का मैट्रिक पास करने से पूर्व ही सन् 1880 में विवाह कर दिया गया। उन दिनों इस उम्र तक विवाह करने की परम्परा थी। लेकिन उनकी पत्नी बीमार रहती थी, कहा जाता है कि विवाह से पूर्व बीमारी की बात छुपाई गयी थी।
अतः उनके भाई-भाभी ने दूसरा विवाह करने के लिए उन पर दबाव डाला। उन्होंने अपनी पहली पत्नी से सहमति न चाहते हुए भी उन्हें दूसरा विवाह करना पड़ा। दूसरी पत्नी से उन्हें एक पुत्र व दो पुत्रियों को जन्म दिया। उनके पुत्र का निधन छोटी आयु में ही हो गया। गोखले ने अपनी दोनों पुत्रियों- काशीबाई व गोदूबाई को अच्छी शिक्षा दी।
शिक्षा एवं प्रारम्भिक जीवन
गोखले की प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय विद्यालय में हुई थी। वह एक औसत दर्जे के विद्यार्थी थे। एक बार अध्यापक ने छात्रों को गृहकार्य के रूप में गणित का एक सवाल दिया। अगले दिन जाँच करने पर केवल गोखले का उत्तर सही पाया गया, अन्य छात्रों के उत्तर गलत थे। अध्यापक ने उनकी प्रशंसा की और कक्षा में आगे आने के लिए कहा।
अपनी प्रशंसा सुनकर गोखले रोने लगे। अध्यापक के पूछने पर गोखले ने बताया कि वह सवाल उन्होंने स्वयं हल नहीं किया, बल्कि किसी अन्य ने हल किया था। अध्यापक गोखले की साफगोई और ईमानदारी पर बहुत खुश हुए।
सन् 1874-75 में गोखले आगे की शिक्षा पाने के लिए अपने बड़े भाई के साथ कोल्हापुर गए। वहाँ वह पूरी तरह पढ़ाई में निमग्न हो गए। सन् 1879 में उनके पिता का देहांत हो गया, जिससे परिवार के भरण-पोषण की समस्या खड़ी हो गई। परिवार में कोई अन्य कमाने वाला नहीं था। ऐसे में गोखले के निर्धन चाचा अनंतजी ने उनके परिवार को सहारा दिया।
गोखले का परिवार उनके साथ ताम्हनमाला चला गया। परिवार के भरण-पोषण के लिए गोखले के बड़े भाई गोविंद ने पढ़ाई छोड़कर 15 रुपए मासिक वेतन पर नौकरी कर ली। परिवार की आर्थिक स्थिति सैंभालने के लिए गोपाल ने भी पढ़ाई छोड़कर नौकरी करनी चाही, लेकिन उनकेभाई और भाभी ने उन्हें आगे पढ़ने के लिए उत्साहित किया।
गोविंद गोपाल के लिए प्रतिमाह 8 रुपए भेजते थे, जो उन दिनों पर्याप्त माने जाते थे। गोखले को अपने परिवार की दयनीय आर्थिक स्थिति का ज्ञान था। इसलिए वह एक पाई भी फिजूल खर्च नहीं करते थे।सन् 1881 में गोखले ने मैट्रिक की परीक्षा पास की।
सन् 1882 में उन्होंने कोल्हापुर के राजाराम कॉलेज में दाखिला लिया और ‘प्रीवियस परीक्षा’ पास की। उस समय राजाराम कॉलेज में दूसरे वर्ष का पाठ्यक्रम नहीं था, इसलिए वह पूना के दक्कन कॉलेज में चले गए। तब तक राजाराम कॉलेज में दूसरे वर्ष का पाठ्यक्रम प्रारंभ कर दिया गया। अंतिम वर्ष की परीक्षा उन्होंने बंबई के एलर्फिस्टन कॉलेज से उत्तीर्ण की।
गणित के अध्यापक प्रो. हॉथानवेट और अंग्रेजी के प्रो. वर्ड्सवर्थ गोखले से काफी प्रभावित हुए। उनका व्यापक प्रभाव गोखले पर पड़ा। उनके प्रयासों से गोखले को 20 रुपए प्रतिमाह की छात्रवृत्ति मिलने लगी। इसी कॉलेज से उन्होंने बी.ए. की परीक्षा दिवतीय श्रेणी में उत्तीर्ण की।
लेकिन इससे पारिवारिक दायित्व पूरे नहीं हो सकते थे इसलिए वह पूना के न्यू इंग्लिश स्कूल में सहायक अध्यापक के रूप में कार्य करने लगे। वहाँ उन्हें बतौर वेतन 35 रुपए मिलते थे। इसके साथ-साथ वह सरकारी प्रतियोगिताओं में सम्मिलित होनेवाले प्रतियोगियों को भी पढ़ाने लगे। इसी दौरान उन्होंने कानून की पहली परीक्षा पास कर ली। किंतु परिस्थितिवश उन्हें अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी।
न्यू इंग्लिश स्कूल पुणे में अध्यापन करते हुए गोखले जी बालगंगाधर तिलक के संपर्क में आए। न्यू इंग्लिश स्कूल में शिक्षण कार्य के दौरान गोखले का परिचय अंकगणित के प्रसिद्ध अध्यापक एन.जे. बापट से हुआ। उनके साथ मिलकर गोखले ने गणित की एक पाठ्य-पुस्तक तैयार की। तिलक को वह पुस्तक बहुत पसंद आई। उन्होंने उस पुस्तक को प्रकाशित कराने का परामर्श दिया।
प्रकाशित होने पर वह पुस्तक देश के कई स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल कर ली गई। पुस्तक की बिक्री से गोखले को रॉयल्टी के 1,500 रुपए मिले। बाद में अन्य भाषाओं में भी उस पुस्तक का अनुवाद करवाया गया।
इस बीच गोखले बालगंगाधर तिलक आगरकर के संपर्क में आए। गोखले पर उनके विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा। आगरकर ने गोखले को एक अध्यापक के रूप में स्कूल का आजीवन सदस्य बना लिया। इसके साथ ही राजनीतिक क्षेत्र में गोखले के प्रवेश का आधार तैयार हो गया।
सन् 1885 में कोल्हापुर के रेजीडेंट विलियम ली वॉर्नर की अध्यक्षता में गोखले ने अंग्रेजी शासन के अधीन भारत’ पर जोरदार भाषण दिया था। श्री वार्नर ने उनके भाषण की मुक्तकंठ से प्रशंसा की।
1886 में वह फर्ग्यूसन कालेज में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक के रूप में डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी में सम्मिलित हुए। वह श्री एम.जी. रानाडे के प्रभाव में आए। सार्वजनिक सभा पूना के सचिव बने। 1890 में कांग्रेस में उपस्थित हुए। 1896 में वेल्बी कमीशन के समज्ञा गवाही देने के लिए वह इंग्लैण्ड गए।
गोपाल कृष्ण गोखले का राजनीति में प्रवेश
रानाडे को अपना गुरु माननेवाले गोखले ने सन् 1889 में कांग्रेस में कदम रखा। लोकमान्य तिलक भी इसी वर्ष कांग्रेस में शामिल हुए। यद्यपि तिलक की भाँति गोखले कभी गरम दलीय नेता नहीं बन सके, किंतु उनके विद्रोही स्वर सदैव मुखरित होते रहे।
यद्यपि गोखले व तिलक के विचारों में काफी अंतर था, किंतु सन् 1889 में बंबई में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में तब एक अद्भुत संयोग देखने को मिला, जब भारतीय विधान परिषद् केगठन के लिए रखे गए संशोधन प्रस्ताव का अनुमोदन गोखले ने किया। यद्यपि यह प्रस्ताव पास नहीं हो सका, किंतु गोखले व तिलक का साथ कुछ मजबूत हो चला था।
गोखले 1899 में बम्बई विधान सभा के लिए और 1902 में इम्पीरियल विधान परिषद के निर्वाचित किए गए। वह अफ्रीका गए और वहां गांधी जी से मिले। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका की भारतीय समस्या में विशेष दिलचस्पी ली।
सन् 1888 में गोखले को ऐसी ही एक संस्था ‘पूना एसोसिएशन’ का अवैतनिक मंत्री बनाया गया। इस सभा से ही गोखले की देश-सेवा की शुरुआत हुई। इस पद के साथ उन्हें एक अन्य कार्यभार भी सौंपा गया। सभा द्वारा एक अंग्रेजी त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन भी किया जाता था। उसके संपादन का दायित्व भी गोखले के कंधों पर डाल दिया गया।
सन् 1893 में उनके जीवन से माँ का साया उठ गया। तब भी उनके मातृभूमि-प्रेम में कोई कमी नहीं आई। वह जोर-शोर से सोसाइटी के कामों में लगे रहे। सन् 1895 में वह सोसाइटी के वरिष्ठ सदस्यों में गिने जाने लगे। सन् 1895 में फर्ग्युसन कॉलेज के प्रिंसिपल का पद ग्रहण का प्रस्ताव उनके समक्ष रखा गया, मगर समाज और देश के प्रति कार्यों की अधिकता के कारण उन्होंने यह पद अस्वीकार कर दिया।
गोखले जी 1905 में आजादी के पक्ष में अंग्रेजों के समक्ष लाला लाजपतराय के साथ इंग्लैंड गए और अत्यंत प्रभावी ढंग से देश की स्वतंत्रता की वहां बात रखी। देश में उस समय ऐसी कई संस्थाएं काम कर रही थीं, जो लोगों की शिकायतों को प्रकाश में लाती थीं।
उनके संपादन में पत्रिका के छब्बीस अंक प्रकाशित हुए। उन सभी में प्रकाशित उनचास लेखों में गोखले ने केवल आठ-नौ लेख ही लिखे थे। यचापि उनके मार्ग में कई कठिनाइयाँ आई, किंतु वह विचलित हुए बिना अपना कर्तव्य निभाते रहे। गोखले का जीवन सामान्य ढंग से चलने लगा था। अध्ययन व राजनीतिक जीवन में वह एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति बन चुके थे।
पत्रकारिता के क्षेत्र मे
यद्यपि गोखले ने पत्रकारिता को पूरी तरह जीविका के रूप में नहीं अपनाया था, किंतु उन्होंने ‘मराठा’ पत्र के लिए कुछ लेख भी लिखे और ‘केसरी’ के लिए समाचारों के संग्रह व सार-संक्षेपण का कार्य भी किया।
इसी दौरान आगरकर ने ‘सुधारक’ नामक पत्रिका निकाली, जिसके अंग्रेजी भाग का कार्यभार सन् 1888 में उन्हें सौंपा गया। गोखले की देशभक्ति और लेखनी ने उन्हें कई पत्र-पत्रिकाओं से जोड़ा। उनके लेखों की बहुत प्रशंसा हुई।
इससे पहले सन् 1886-87 में ही ‘जनरल वॉर इन यूरोप’ शीर्षक से उन्होंने एक लेखमाला भी लिखी। इसी श्रृंखला में उन्होंने बंबई के गवर्नर वार्ड रेई के पक्ष में ‘शेम, शेम, बाई लॉर्ड, शेम’ शीर्षक से एक लेख लिखा। उस गवर्नर को वह लेख इतना पसंद आया कि वह पत्रिका का ग्राहक ही बन गया।
बम्बई विश्विद्यालय के विकास में योगदान
बंबई विश्वविद्यालय के विकास में भी श्री गोखले का महत्वपूर्ण योगदान रहा। वह कई वर्ष तक उसके सीनेट के सदस्य बने रहे। उन्होंने इतिहास को विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में जगह दिलाने के लिए काफी कोशिश की।
इसी कारण से उन्हें सन् 1895 में बंबई विश्वविद्यालय का फेली बना दिया गया। इसी वर्ष उन्होंने ‘राष्ट्रसभा समाचार’ के संपादक के पद पर भी कार्य किया। साथ ही, वह तिलक के साथ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सहसचिव के रूप में भी सेवाएँ देते रहे।
गांधी जी के राजनीति गुरु
सन् 1896 में गांधीजी से गोखले की पहली मुलाकात हुई। धीरे-धीरे गांधीजी के साथ उनकी घनिष्ठता बढ़ती गई। गांधीजी गोखले के विचारों से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने अपने आपको गोखले का शिष्य घोषित कर दिया।
गोपाल कृष्ण गोखले की इंग्लैंड यात्रा
सन् 1897 गोखले को पहली बार इंग्लैंड की यात्रा करने का अवसर मिला। उस वर्ष मार्च से जुलाई तक वे इंग्लैंड में रहे। इंग्लैंड जाते समय वह कैले में प्रतीक्षालय में गिर पड़े, जिससे उनके हृदय में चोट आई और उन्हें पंद्रह दिनों तक बिस्तर पर आराम करना पड़ा। वहाँ श्रीमती कासग्रेव ने उनकी बहुत सेवा की।
इंग्लैंड में गोखले ब्रिटेन के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञों से मिले। वहाँ जॉन मार्ले ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। वहाँ उनकी नारंगी पगड़ी ने उन्हें आकर्षण का केंद्र बना दिया, विशेषकर महिलाओं में। इस इंग्लैंड यात्रा में गोखले को भारत तथा ब्रिटेन की सरकारों के मध्य प्रभारों के आवंटन के उद्देश्य से गठित किए गए वेल्बी आयोग के समक्ष प्रस्तुत होना था। उनके साथ सुरेंद्र नाथ बनर्जी और जी. सुब्रह्मण्यम भी इंग्लैंड गए थे।
आयोग के सामने दिए गए साक्ष्यों के बाद वह इतिहास में एक देशभक्त, अर्थशास्त्री और राजनीतिज्ञ के रूप में प्रसिद्ध हो गए। उन्होंने देश का आर्थिक विकास किए जाने पर विशेष बल दिया था तथा भारतीय बजट, रेल-व्यवस्था, भारतीय सिविल सेवा संवर्ग आदि में सुधार की विशेष सिफारिश की।
अब गोखले ने समाज-सेवा और राजनीति के लिए अपना जीवन अर्पित करने का निश्चय कर लिया था।
सर्वेट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी की स्थापना
12 जून, 1905 को गोखले के पुराने सहयोगी शिवराम हरि साठे ने पूना में ‘सर्वेट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी’ की आधार शिला रखी। स्नातकोत्तर संस्थान के रूप में स्थापित इस सोसाइटी से देश के कई महान् नेता जुड़ते चले गए और इसकी शाखाओं का विस्तार होता चला गया।
सोसाइटी की सदस्यता के लिए गोखले जी एक-एक सदस्य की कड़ी परीक्षा लेकर सदस्यता प्रदान करते थे।गोखले ने इसके संविधान नियमावली को तैयार किया था। इसके सदस्य नाममात्र के वेतन पर आजीवन देश-सेवा का व्रत लेते थे।
सन् 1910 में गोखले ने प्रारंभिक शिक्षा के संबंध में सरकार के समक्ष एक प्रस्ताव रखा, जो बाद में वापस ले लिया गया। वह दस वर्ष तक की आयु के लड़कों के लिए शिक्षा अनिवार्य करना चाहते थे। उन दिनों गोखले ने एक महत्त्वपूर्ण सफलता अर्जित की। तब ब्रिटिश भारत से करारबद्ध मजदूरों को भरती करदक्षिण अफ्रीका के नाटाल प्रांत में भेजा जाता था। गोखले ने इसका कड़ा विरोध किया, जिसके मद्देनजर उनका यह प्रस्ताव मान लिया गया। गांधीजी ने भी इसे एक बड़ी उपलब्धि माना था।
सन् 1902 से 1911 तक गोखले ने बजट संबंधी 11 तथा अन्य विषयों से संबंधित 36 महत्त्वपूर्ण भाषण दिए। वह गांधीजी क्वान पर दक्षिण अफ्रीका भी गए। गोखले विभिन्न कार्यों से सात बार इंग्लैंड गए। वहाँ का मौसम उन्हें रास नहीं आता था। फिर भी देश की खातिर वह बार-बार वहाँ गए।
गोपाल कृष्ण गोखले की मृत्यु कैसे हुई ?
सन् 1914 में गोखले बहुत बीमार पड़ गए। डॉक्टरों ने उनका इलाज करके उस समय तो उन्हें बचा लिया, किंतु वे अपनी बीमारी की गंभीरता भाँप गए थे। इसलिए उन्होंने अपनी वसीयत बना डाली। वह वसीयत राजनीतिक वसीयत और इच्छा-पत्र के रूप में थी। उसमें उन्होंने भारतीय प्रशासन में सुधारात्मक परामर्श दिए थे, ताकि देश का राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक विकास हो सके।
19 फरवरी, 1915 को गोखले का देहांत हो गया। इस शोक में गांधीजी ने एक वर्ष तक नंगे पैर रहने का प्रण किया था।
निष्कर्ष:- अपने चरित्र की सरलता, बौद्धिक क्षमता और देश के प्रति दीर्घकालीन स्वार्थहीन सेवा के लिए गोपाल कृष्ण गोखले सदा सदा स्मरण किया जाएगा।