गुरू अमरदास (Guru Amar Das)
गुरु अमरदास (Guru Amar das) सिक्खों के तीसरे गुरु थे। गुरु अमरदास 26 मार्च, 1552 से 1 सितम्बर, 1574 तक गुरु के पद पर आसीन रहे। गुरु अमरदास को समाजिक उत्थान के कार्यो के लिए भी जाना जाता है।
गुरू अमरदास- तीसरे पातशाह (Third Guru of Sikh)
पूरा नाम | गुरु अमरदास (Guru Amar Das) |
जन्म | 5 अप्रॅल, 1479 |
जन्म भूमि | बसरका गाँव, अमृतसर |
मृत्यु | 1 सितम्बर 1574 |
मृत्यु स्थान | अमृतसर, पंजाब |
पिता | तेज भान भल्ला |
माता | बख्त कौर |
पत्नी | मंसा देवी |
उपलब्धि | सिक्खों के तीसरे गुरु |
विशेष योगदान | छूत-अछूत जैसी बुराइयों को दूर करने के लिये ‘लंगर परम्परा’ चलाई। |
नागरिकता | भारतीय |
पूर्वाधिकारी | गुरु अंगद देव |
उत्तराधिकारी | गुरु रामदास |
गुरू अमरदास जीवनी (Guru Amar Das Biography in Hindi)
गुरु अमर दास जी का जन्म 5 अप्रैल 1479 अमृतसर से 5 किलोमीटर दूर बसरका गाँव के खत्री परिवार में हुआ हुआ था। इनके पिता का नाम तेजभानजी और माता का नाम लक्ष्मीजी था। पिता खेती तथा व्यापार से अपनी जीविका चलाते थे तथा माता बहुत धार्मिक प्रवृत्ति की थी। उनके विचारों का प्रभाव बालक अमर दास पर बचपन से ही पड़ना आरम्भ हो गया था।
किशोरावस्था से ही उन्हें तीर्थाटन का शौक लग गया था वह गांव के अपने संगी साथियों के साथ अकसर तीर्थों की यात्रा करने चले जाते थे। वह हर वर्ष हरिद्वार गंगा स्नान करने जाते थे। और यह उनका नियम बन गया था।
गुरु अमर दास जी सिक्ख पंथ के एक महान् प्रचारक थे। जिन्होंने गुरु नानक जी महाराज के जीवन दर्शन को व उनके द्वारा स्थापित धार्मिक विचाराधारा को आगे बढाया।
विवाह और सनातन
गुरु अमरदास का विवाह 24 वर्ष की आयु में सनखने गाँव के निवासी देवचंद की सुपुत्री बीबी मंशादेवी से कर दिया। गुरुजी की चार संतानें थीं-दो पुत्र-मोहनजी और मौहरीजी तथा दो पुत्रियाँ बौबीं भानीजी और बीबी निधानीजी।
गुरु अंगद के प्रति श्रद्धा
एक दिन सुबह के समय अमरदास जी कहीं जा रहे थे कि अचानक एक मकान में से उन्हें एक भजन की सुमधुर आवाज सुनाई दी। उन्होंने उस मकान की ओर देखा जहाँ से आवाज़ आ रही थी। उनके भतीजे की नव-विवाहिता पत्नी ‘अमरो’ भजन रही थी। अमरदास जी ने बीबी अमरो से पूछा, “बेटी, यह भजन किसका था जिसे तुम गा रही थी ?”
बीबी अमरो ने उत्तर दिया, “यह रचना गुरु नानकदेव जी की है। जिसे मैंने अपने पिताजी ‘अंगद देव’ जी से बचपन मे सीखा था। मैं नियमित रूप से सुबह इसका पाठ करती हूं।” अमरदास ने कहा, “बेटी मैं भी गुरुजी के दर्शन करना चाहता हूं। क्या तुम मुझे उनके पास ले चलोगी?”
“जरूर ले चलूंगी।” बीबी अमरो उन्हें अपने पिता गुरु अंगददेव के पास ले गई। जिस समय अमरदास जी खडूर पहुंचे, गुरु अंगद देव अपने शिष्यों को उपदेश दे रहे थे। अमरदास जी बड़ी तन्मयता से उनका प्रवचन सुनते रहे और उपदेश खत्म होने पर वह उनके चरणों में जा गिरे।
“मुझे अपना शिष्य बना लीजिए गुरुजी।” उनकी विह्वलता देखकर गुरु अंगद देव ने उन्हें अपना शिष्य बना लिया और उन्हें लंगर की देखभाल का काम सौंप दिया। उस समय अमरदास जी की उम्र 62 वर्ष थी।
अमरदासजी गुरु अंगददेव के दर्शन से इतने आनंदित हुए कि उन्होंने अपना सर्वस्व गुरुजी के चरणों में अर्पित कर दिया और तन-मन से गुरु की सेवा में जुट गए। गुरुजी के प्रति उनकी श्रद्धा व भक्ति इतनी अगाध थी कि वह कभी उनकी ओर पीठ करके भी नहीं चलते थे-इस खयाल से कि कहीं इससे गुरु का अपमान न हो जाए और वह उनसे रूठ न जाएँ।
गुरु पद प्राप्ति
गुरु अंगददेव नेे 73 वर्ष के वृद्ध अमरदास जी की निस्वार्थ व अथक सेवा से प्रभावित होकर चैत्र सुदी प्रतिपदा संवत् 1609 (सन् 1552) को अमरदासजी को गुरु पदवी सौंप दी। गुरु अमरदास सिख पंथ के तीसरे गुरु कहलाए।
गुरु अंगद देव जानते थे कि उनके दोनों बेटे दासू और दातू अमरदास से केवल ईर्ष्या और द्वेष करते हैं। शायद इसलिए ही उन्होंने अमरददास जी को गोयंदवाल में ही रहकर सिक्ख मत का प्रचार-प्रसार करने का आदेश दिया होगा।
अमरदासजी को गुरु बनाए जाने पर गुरु अंगददेव के पुत्र ‘दातूजी’ बड़े निराश हुए। क्योंकि पिता के बाद वह अपने आपको गुरुगद्दी का असली उत्तराधिकारी समझते थे। ईर्ष्या और क्रोध की आग में जलते हुए दातूजी ने गुरु अमरदास के दरबार में पहुँच गए।।
उस समय गुरु अमरदास अपनी उपदेश दे रहे थे। दोनों भाइयों ने संगत की परवाह न करके उन्हें अपशब्द कहने शुरू कर दिए। दातू ने गुरु अमरदास के सीने पर लात मारकर क्रुद्ध स्वर में कहा-“इस गद्दी का वास्तविक अधिकारी मैं हूं। गद्दी से उतर जाओ।” मगर अंगददेव ने कुछ नही कहा। इतने सरल हृदय थे गुरु अमरदास।
बादशाह अकबर और गुरु अंगद
संवत् 1624 में मुगल बादशाह अकबर लाहौर जा रहा था। रास्ते में व्यास नदी आ गई। इसी नदी के किनारे गोयंदवाल नगर था, जहां गुरु अमरदास जी अपने आश्रम में रहते थे।।
अकबर ने गुरु अंगद के बारे में सुन रखा था। अकबर ने अपने सेनापतियों से कहा, “हमने सुना है कि गोयंदवाल में एक हिन्दू सन्त रहते हैं, जिन्हें सब अवतार मानते है हैं।”
महाराज! “उनके बारे में हम लोगों ने भी बहुत कुछ सुना है। कहते है – उनकी नजर में न तो कोई हिन्दू है न मुसलमान। वह सभी को एक समान समझते हैं। उनके आश्रम में लंगर होता है जिसमें सभी धर्म, जाति और छोटे-बड़े का भेद भाव -भूलकर एक ही कतार में बैठकर खाना खाते हैं। गुरु अमरदास भी उन लोगों के साथ बैठकर भोजन करते हैं।”
शहंशाह अकबर वेश बदलकर गुरुजी का उपदेश सुनने लगे। लेकिन वहां बैठे लोगों ने बादशाह अकबर को पहचान लिया। और उन्हें बड़े सम्मान के साथ गुरुजी के पास ले गए। अकबर ने दोनों हाथ जोड़कर गुरु अमरदास जी को प्रणाम किया और बोला, “मैंने आपके बारे में जैसा सुना था वैसा ही पाया। मेरे योग्य कोई सेवा हो तो आज्ञा कीजिए।”
“शहंशाह, मैं आपको आज्ञा नहीं दे रहा, अनुरोध कर रहा हूँ। सच्चा सम्राट वही होता है, जो प्रजा के दिलों के ऊपर राज करता है। उन्हें एक समान समझता है। तुम भी बिना किसी भेदभाव के सच्चे मन से प्रजा की सेवा करो। सबसे प्रेम भरा व्यवहार करो। अपनी शक्ति का कभी दुरुपयोग मत करना। तुम्हारा कल्याण होगा ।”
बादशाह अकबर ने अपने साथियों के साथ मिलकर लंगर में भोजन किया और गुरु अमरदास जी के शब्दों को गांठ बांधकर चला आया। अकबर ने गुरू पुत्री बीबी भानी को कई गाँव भी भेंट में दिया था।
समाज सुधार संबंधी कार्य
गुरु अमरदास ने गोइंदवाल में अपना मुख्यालय स्थापित किया था और वही से अपने उपदेश देते थे। यदि कार्य के प्रति समर्पण और समाजिक उत्थान की दृष्टि से देखा जाए तो शायद गुरु अंगद का योगदान सब गुरुओं में सर्वाधिक रहा है।
महिलाओं का उत्थान
गुरु अमरदास ने सामाजिक सुधार की दिशा में कई कार्य किए थे। विशेषकर सदियों से भेद भाव की शिकार होती स्त्री जाती के उत्थान के लिए अंगद देव का अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।
- गुरु अमरदास ने पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों को भी धार्मिक सभाओं में शामिल होने की अनुमति तो दी ही, साथ ही धार्मिक प्रचार के लिए स्त्रियों को भी नियुक्त किया।
- उन्होंने परदा-प्रथा का सख्त विरोध किया और यह आदेश दिया कि उनके दरबार में स्त्रियाँ बिना परदे के आएँ।
जात-पाँत का उन्मूलन
जात-पाँत के उन्मूलन तथा सामाजिक बराबरी की स्थापना के महान् उद्देश्य से गुरु नानकदेवजी ने ‘संगत और पंगत’ की जो क्रांतिकारी प्रथा प्रारंभ की थी, गुरु अमरदास ने उसे जारी ही नहीं रखा बल्कि यह नियम भी लागू कर दिया कि उनके दर्शन की आज्ञा व्यक्ति को तभी प्राप्त होगी जब वह पहले लंगर में सबके साथ एक ही पंगत (पंक्ति) में बैठकर भोजन ग्रहण करेगा-चाहे दर्शनार्थी कितना भी बड़ा व्यक्ति क्यों न हो।
सिख धर्म मे योगदान
- गुरू अमरदास ने 22 गद्दियों को स्थापित किया और प्रत्येक गद्दी पर एक महंत नियुक्त किया ।
- गुरु अमरदास जी ने अपने से पहले दो गुरुओं के उपदेशों और संगीतों को लोगों तक पहुंचाने का काम किया।
- सिक्खों के तीसरे गुरू अमरदास ने सिक्ख धर्म को हिन्दू धर्म से पृथक बनाने हेतु कार्य किया। इन्होंने हिन्दूओ से पृथक विवाह पद्धति लवन को सिक्खों के बीच प्रचलित किया।
- गुरु अमरदास ने मंजी और पिरी जैसे धार्मिक कार्यों की शुरूआत की।
- अमरदास के कुछ पद गुरु ग्रंथ साहब में संगृहीत हैं। इनकी एक प्रसिद्ध रचना ‘आनंद’ है जो उत्सवों में गाई जाती है।
- इन्हीं के आदेश पर चौथे गुरु रामदास ने अमृतसर के निकट ‘संतोषसर’ नाम का तालाब खुदवाया था जो अब गुरु अमरदास के नाम पर अमृतसर के नाम से प्रसिद्ध है।
- गुरु अमरदास साहिब ने ही बादशाह अकबर से कहकर सिखों और हिंदुओं को उनपर लगने वाले इस्लामिक जज़िया कर से निजात दिलवाई थी।
जोत में जोत समाई (मृत्यु)
पंचानबे वर्ष की अवस्था में अमरदास जी ने अपने एक अनन्य सेवक भाई जेठाजी (गुरु रामदास) जी को भादों सुदी 13 विक्रम संवत् 1631 को गुरुपद परंपरा के निर्वहण का दायित्व सौंप दिया।
इसके 2 दिन बाद भादों सुदी 15 संवत् 1631 (1 सितंबर, 1574) को इस संसार से विदा हो गए।। उस समय उनकी आयु 95 वर्ष 4 माह और एक दिन थी।