गुरु अंगद देव (Guru Angad Dev)
गुरु अंगद देव (Guru Angad Dev) सिखो के दूसरे गुरु थे। इन्हें गुुरु पद सिख धर्म के संस्थापक और प्रथम गुरु ‘गुरू नानक देव’ से प्राप्त हुई थी। अंगद 1538 से 1552 तक गुरु पद में रहे। गुरु अंगद ने “गुरु मुख लिपि” और “गुरु नानक देव की जीवनी” लिखी थी।।
Guru Angad Dev (2nd Guru of sikh)
पूरा नाम | गुरु अंगद देव (Guru Angad Dev) |
अन्य नाम | लहिणा जी (मूल नाम) |
जन्म | 31 मार्च, 1504 |
जन्म भूमि | हरीके गांव, फिरोजपुर, पंजाब |
मृत्यु | 28 मार्च, 1552 |
मृत्यु स्थान | अमृतसर |
माता | दयाकुँवरि (रामो जी) |
पिता | फेरूमल (फेरू जी) |
पत्नी | खीवी जी |
पुत्र | दासू जी एवं दातू जी |
पुत्री | अमरो जी एवं अनोखी जी |
गुरु | गुरु नानक |
उपाधि | सिख धर्म के दूसरे गुरु |
पूर्वाधिकारी | नानक |
उत्तराधिकारी | गुरु अमरदास |
विशेष योगदान | गुरुमुखी की स्वतन्त्र लिपि और गुरु नानक देव की जीवनी। |
गुरु अंगद देव (Guru Angad Dev Biography in Hindi)
गुरू अंगद साहिब (Guru Angad Dev) या लहना जी का जन्म वैसाख वदी 1, (पंचम् वैसाख) सम्वत 1561 (10 अप्रैल 1504) को फिरोजपुर, पंजाब के हरिके गाँव में हुआ था। गुरुजी जी के पिता का नाम श्री फेरू जी तथा माता जी का नाम माता रामो देवी जी था। अंगद देव का नाम वास्तविक नाम ‘लहना’ था, बाद में गुरू नानक ने उन्हें एक नया नाम अंगद (गुरू अंगद साहिब) दिया।
जब लहणा छोटे ही थे तो इनके पिता को मुगल एवं बलूच लुटेरों (जो कि बाबर के साथ आये थे) की वजह से फेरू जी को अपना पैतृक गांव छोड़ना पड़ा था। इसके पश्चात उनका परिवार तरन तारन के समीप अमृतसर से लगभग 25 कि॰मी॰ दूर स्थित खडूर साहिब नामक गाँव में बस गया, जो कि ब्यास नदी के किनारे स्थित था।
गुरु अंगद के पत्नी और बच्चे (Guru Angad wife and Children / Family)
गुरु अंगद (Guru Angad Dev) का विवाह वर्ष 1520 में विवाह पास ही के गाँव के एक धनी साहूकार की सुलक्षणा पुत्री खीवी जी के साथ हुआ था। जिनसे उनके दो पुत्र दासू एवं दातू तथा दो पुत्रियाँ ‘अमरो एवं अनोखी‘ हुई।
उन्होंने सिक्ख धर्म को एक संगठित रूप प्रदान किया और समाज-सुधार के क्षेत्र में भी कई कदम उठाए।
गुरु अंगद का गुरु नानक से मिलन
एक बार भाई लहना जी (गुरु अंगद) ने नानक साहिब के एक अनुयायी ‘जोधा’ के मुख से गुरू नानक के शबद सुने और शब्द में कहे गए गुरमत के फलसफे से वो बहुत प्रभावित हुए। लहना जी तभी निर्णय लिया लिया कि वो नानक के दर्शन के लिए करतारपुर जायेंगे। उनकी सतगुर नानक साहिब जी से पहली भेंट ने उनके जीवन में क्रांति ला दी।
सतगुरु नानक से भाई लहने ने आत्मज्ञान लिया जिसने उन्हें पूर्ण रूप से बदल दिया।वो सतगुर नानक साहिब की विचारधारा के सिख बन गये एवं करतारपुर में निवास करने लगे। उन्होने गुरू नानक की सेवा में 6 से 7 वर्ष करतारपुर में ही बिताये।
गुरु अंगद को गुरु पदवी कैसे और कब मिला?
गुरु नानक देव जी ने जब अपने उत्तराधिकारी को नियुक्त करने का विचार किया तब अपने पुत्रों सहित अपने प्रिय शिष्य अंगद की परीक्षा ली। कहा जाता है कि नानक ने कुल 7 बार परीक्षा ली थी।
अंततः सतगुर नानक देव जी के महान एवं पवित्र मिशन के प्रति उनकी महान भक्ति और ज्ञान को देखते हुए सतगुर नानक साहिब जी ने 7 सितम्बर 1539 को सिक्खों के दूसरे गुरु के रूप में गुरुपद प्रदान कर गुरमत के प्रचार का जिम्मा सौंपा। सतगुर नानक के लडके इस बात से नाराज हुए और गुरु घर के विरोधी बन गए।
2 अक्टूबर 1439 को गुरू नानक साहिब जी की मृत्यु के पश्चात गुरू अंगद साहिब करतारपुर छोड़ कर खडूर साहिब गाँव (गोइन्दवाल के समीप) चले गये। और वही से सिख धर्म का प्रचार-प्रसार किया।
गुरु अंगद देव द्वारा किए गए महत्वपूर्ण कार्य
गुरु अंगद देव (Guru Angad Dev) ने नानक साहिब के विचारों को दोनों ही रूप में (लिखित एवं भावनात्मक) में प्रचारित किया। गुरू अंगद साहिब जी ने गुरू नानक साहिब जी द्वारा स्थापित सभी महत्वपूर्ण स्थानों एवं केन्द्रों का दौरा किया एवं सिख धर्म के प्रवचन सुनाये।
अंगद देव ने सैकड़ों नयी संगतों को स्थापित किया और इस प्रकार सिख धर्म के आधार को बल दिया। उन्होने 63 श्लोकों की रचना भी की थी,जो कि गुरू ग्रन्थ साहिब जी में अंकित हैं। गुरु अंगद के कार्यकाल में सिख पंथ ने अपनी एक विशेष पहचान स्थापित की। गुरु अंगद द्वारा किए गए कुछ महत्पूर्ण कार्य निम्न है-
गुरु अंगद ने लिखी थी गुरु नानक की जीवनी
गुरु नानक (Guru Nanak) जी की मृत्यु के बाद गुरु अंगद (Guru Angad) जी ने उनके उपदेशों को आगे बढ़ाने का काम किया साथ ही उन्होने भाई बाला जी से गुरू नानक साहिब जी के जीवन के तथ्यों के बारे में जाना एवं गुरू नानक साहिब जी की जीवनी लिखी।
गुरुवाणी लिखने के लिए गुरुमुखी लिपि का प्रचलन किया ‘लंगर’ का प्रचलन भी उनके समय में ही हुआ। इससे सिक्ख मतावलंबियों में एकता बढ़ी और जाति-पाँति का भेदभाव समाप्त करने में सहायता मिली।
गुरु मुख लिपि का निर्माण किया
गुरू अंगद साहिब ने गुरु नानकदेव प्रदत्त “पंजाबी लिपि” के वर्णों में फेरबदल कर गुरूमुखी लिपि की एक वर्णमाला को प्रस्तुत किया। यानि की गुरमुखी अक्षर श्री गुरू अंगद देव जी ने बनाये। यह कार्य 1541 में हुआ।
यह लिपि बहुत जल्द लोगों में लोकप्रिय हो गयी। गुरु अंगद ने बच्चों की शिक्षा में विशेष रूचि ली। उन्होंने विद्यालय व साहित्य केन्द्रों की स्थापना भी करी।
पहला अटूट लंगर चलाया
गुरु अंगद देव ने गुरू नानक साहिब जी द्वारा चलायी गयी ‘गुरू का लंगर’ की प्रथा को सशक्त तथा प्रभावी बनाने पर विशेष बल दिया।
गुरू अंगद देव जी ने “श्री खडुर साहिब” आकर पहला अटूट लंगर भी चलवाया। जहां पर किसी भी धर्म, जाति, पंथ, हैसियत का आदमी बिना किसी भेदभाव के एक पंक्ति में बैठकर लंगर खा सकता था।
तमदुरुस्ती के लिए अखाड़े का निर्माण
गुरु अंगद ने आध्यात्मिक ज्ञान और उपदेश के साथ-साथ शारीरिक तंदुरुस्ती के लिए कसरत पर भी विशेष बल दिया। उन्होंने कई अखाड़ों का निर्माण भी करवाया। जहाँ वह स्वयं अभ्यास भी करवाते थे।
पंजाबी भाषा की लिपि ‘गुरमुखी’ (गुरु के मुख से निकली हुई) भी गुरु अंगददेव ने ही विकसित की तथा उसे लोकप्रिय बनाया।
गुरु अंगद जी की मृत्यु (जोत में जोत समायी)
गुरु अंगद देव (Guru Angad Dev) सितम्बर 1539 से मार्च 1552 तक गुरु पद पर आसीन रहे। गुरू अंगद साहिब ने गुरू नानक साहिब द्वारा स्थापित परम्परा के अनुरूप अपनी मृत्यु से पहले अमरदासजी साहिब को गुरुपद प्रदान कर 48 वर्ष की आयु में 29 मार्च 1552 को परलोक सिधार गए।
‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में ‘महला 2’ शीर्षक के अंतर्गत गुरु अंगददेव के बासठ श्लोक दर्ज हैं।
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