हरतालिका तीज: व्रत कथा, मुहूर्त एवं पूजा विधि
हरतालिका तीज व्रत, भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हस्त नक्षत्र के दिन होता है। इंग्लिश कैलेंडर अनुसार यह व्रत अगस्त या सितंबर को पड़ता है। इस वर्ष हरितालिका तीज 9 सितंबर को मनाया जाएगा। जाने हरियाली तीज की व्रत कथा मुहूर्त एवं पूजा विधि-

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हरियाली तीज के दिन कुमारी और सौभाग्यवती स्त्रियाँ गौरी-शंकर की पूजा और व्रत करती हैं। यह त्योहार करवाचौथ से भी कठिन माना जाता है क्योंकि जहां करवाचौथ में चांद देखने के बाद व्रत तोड़ दिया जाता है वहीं इस व्रत में पूरे दिन निर्जल व्रत किया जाता है और अगले दिन प्रातः पूजन के पश्चात ही व्रत तोड़ा जाता है।
हरतालिका तीज क्यों मनाया जाता है?
हरियाली तीज का व्रत सौभाग्यवती स्त्रियां अपने सुहाग की दीर्धायु और अविवाहित युवतियां मन मुताबिक वर पाने के लिए हरितालिका तीज का व्रत करती हैं।
मान्यता अनुसार सर्वप्रथम इस व्रत को माता पार्वती ने भगवान शिव शंकर के लिए रखा था। इस दिन विशेष रूप से गौरी−शंकर का ही पूजन किया जाता है।
व्रत की अनिवार्यता- इस व्रत को कुमारी कन्यायें या सुहागिन महिलाएं दोनों करती है। परन्तु एक बार व्रत रखने बाद जीवन पर्यन्त इस व्रत को रखना पड़ता है। ज्यादातर यह व्रत उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश और नेपाल में मनाया जाता है।
हरितालिका तीज पूजा मुहूर्त 2021| Hartalika Teej Puja Date & Muhurat in 2021
हरतालिका तीज व्रत, भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हस्त नक्षत्र के दिन होता है। इस वर्ष हरितालिका तीज 9 सितंबर को मनाया जाएगा।
- प्रातः पूजन मुहूर्त- 9 सितंबर सुबह 06:15 से 08:42 तक
- संध्या पूजन मुहूर्त- 9 सितंबर शाम 06:32 से 08:53 तक।
सूर्योदय | 09 September, 2021 06:15 AM. |
सूर्यास्त | 09 September, 2021 06:32 PM. |
तृतीय तिथि प्रारम्भ | 09 September, 2021 02:34 AM. |
तृतीय तिथि समाप्त | 10 September, 2021 12:18 AM. |
प्रातःकाल पूजा मुहूर्त | September 09, 06:15 AM-08:42 AM |
प्रदोष काल पूजा मुहूर्त | September 09, 06:32 PM -08:53 PM |
श्री हरतालिका व्रत कथा | Haritalika vrat story in Hindi
एक बार कैलाश पर्वत के शिखर पर माता पार्वती ने महादेव से पूछा हे महेश्वर! अब हमसे आप गुप्त से गुप्त वार्ता कहिए। जो सबके लिए सब धर्मो से सरल हो अथवा महान फल देने वाली हो। हे नाथ आप यदि मन्य और अन्त रहित हैं आपकी माया का कोई पार नहीं हैं तो आपको हमने आपको किस प्रकार से प्राप्त किया। आप कौन-कौन से दान पुण्य फल से हमें वर के रूप में मिलें।
तब महादेव जी बोले हे देवी! सुनो मैं उस व्रत को कहता हूँ जो परम गुप्त है मेरा सर्वस्व है। जैसे तारागणों में चन्द्रमा, ग्रहों में सूर्य, वर्णों में ब्राह्मण, देवताओं में गंगा, पुराणों में महाभारत वेदों में शाम, इन्द्रियों में मन श्रेष्ठ है। वैसे वेद में इसका वर्णन आया है। जिसके प्रभाव से तुमको मेरा पुराण आसन प्राप्त हुआ है। हे प्रिये! यही मैं तुमसे वर्णन करता हूँ।
भादों मास के शुक्ल पक्ष को हस्त नक्षत्र तृतीया तीज के दिन को इस व्रत का अनुष्ठान करने से सब पापों का नाश हो जाता है। हे देवि सुनो तुमने पहले हिमालय पर्वत पर इस व्रत को किया था जो मैं सुनाता हूँ।
शंकर जी बोले, आर्यावर्त में हिमान्चल नामक एक पर्वत है जहां अनेक प्रकार की भूमि अनेक प्रकार के वृक्षों से सुशोभित है। जिन पर अनेक प्रकार के पक्षीगण रहते हैं अनेक प्रकार के मृग आदि जहां विचरण करते हैं जहां देवता गंधवों सहित किन्नर आदि सिद्धजन रहते हैं । गंधर्व गण प्रसन्नता पूर्वक गान करते हैं पहाड़ों के शिखर कंचन मणि वैद्वर्य आदि से सुशोभित रहते हैं। वह गिरिराज आकाश को अपना मित्र जान कर अपने शिखर रूपी हाथ से छूता रहता है जो सदैव बर्फ से ढका हुआ गंगा जी की कलकल ध्वनि से शब्दायमान रखते हैं ।
हे गिरजे तुमने बाल्यकाल में इसी स्थान पर तप किया था बारह साल नीचे को मुख करके धुम्रपान किया। तब फिर चौंसठ वर्ष तुमने बेल के पत्ते भोजन करके ही तप किया। माघ के महीने में जल में रह कर तथा वैशाख में अग्नि में प्रवेश करके तप किया। श्रावण के महीने में बाहर खुले में निवास कर अन्न जल त्याग तप करती रहीं तुम्हारे कष्ट को देख तुम्हारे पिता को चिन्ता हुई। वें चिन्तातुर होकर सोचने लगे कि मैं इस कन्या को किसके साथ वरण करूँ।
तब इस अवसर पर देवयोग से ब्रह्मा जी के पुत्र देवर्षि नारद जी वहां आये। देवर्षि नारद जी तुमको (शैल पुत्री) को देखा। तो तुम्हारे पिता हिमांचल ने देवर्षि को आसन देकर सम्मान सहित बिठाया और कहा मुनिवर आज आपने यहाँ तक आने का कैसे कष्ट किया? आज मेरा अहोभाग्य है कि आपका शुभागमन यहां पर हुआ कहिये क्या आज्ञा है?
तब नारद जी बोले- हे गिरिराज मैं विष्णु का भेजा हुआ आया हूँ, तुम मेरी बात सुनो आप अपनी लड़की को उत्तम वरदान करें। ब्रह्मा, इन्द्र, शिव आदि देवताओं में विष्णु के समान कोई नहीं है। इसलिए तुम मेरे मत से आप अपनी पुत्री का दान विष्णु भगवान को दो।
हिमान्चल बोले यदि भगवान वासुदेव स्वयं ही पुत्री को ग्रहण करना चाहते हैं तो फिर इसी कार्य के लिए ही आपका आगमन हुआ है तो यह मेरे गौरव की बात है मैं, अवश्य उनको ही दूंगा। हिमान्चल की यह कथा सुनते ही देवर्षि नारद जी आकाश में अन्तर्ध्यान हो गए और शंख चक्र, गदा, पदम एवं पीताम्बर धारी विष्णु के पास जा पहुँचे।
नारदजी ने हाथ जोड़कर विष्णु से कहा हे प्रभो! आपका विवाह कार्य निश्चित हो गया। यहां हिमान्चल ने प्रसन्नता पूर्वक कहा हे पुत्री मैंने तुमको गरुणध्वज भगवान विष्णु को अर्पण कर दिया है। पिता के वाक्यों को सुनते ही पार्वती जी अपनी सहेली के घर गई और पृथ्वी पर गिर कर अत्यन्त दुखित होकर विलाप करने लगी। उनको विलाप करते हुए देख कर सखी बोली हे देवी! तुम किस कारण से दुःख पाती हो मुझे बताओ। मैं अवश्य तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूंगी। तब पार्वती बोली हे सखी! मैं महादेवजी को वरणा चाहती हूँ इसमें सदेह नहीं मेरे इस कार्य को पिताजी ने बिगाड़ना चाहा है। इसलिए मैं अपने शरीर का त्याग करूंगी।
तब पार्वती के इन वचनों को सुनकर सखी ने कहा। हे देवि! जिस वन को पिताजी ने देखा न हो तुम वहां चली जाओ। तब हे देवि पार्वती! तुम उस अपनी सखी का यह वचन सुनकर ऐसे वन को चली गई। पिता हिमान्चल तुमको घर पर ढूंढने लगे और सोचा कि मेरी पुत्री को या तो कोई देव दानव अथवा किन्नर हरण कर ले गया है। मैंने नारद जी को यह वचन दिया था कि मैं अपनी पुत्री को गरुणध्वज भगवान के साथ वरण करूंगा। हाय अब यह किस तरह पूरा होगा। ऐसा सोच कर बहुत चिन्तातुर हो मूर्छित हो गए।
तब सब लोग हाहाकार करते हुए दौड़े आए और मूर्छा नष्ट होने पर गिरिराज से बोले हमें अपनी मूर्छा का कारण बताओ। हिमान्चल बोले मेरे दुःख का कारण यह है कि मेरी रत्न रूपी कन्या का कोई हरण कर ले गया है या सर्प डस गया अथवा किसी सिंह या व्याघ्र ने मार डाला है। न जाने वह कहां चली गई या उसे किसी राक्षस ने मार डाला है। इस प्रकार कह कर गिरिराज दुखित होकर इस तरह कांपने लगे जैसे तीव्र वायु चलने पर कोई वृक्ष कांपता है।
तत्पश्चात है पार्वती जी तुमको गिरिराज सखियों सहित घने जंगल में ढूंढने निकले सिंह व्याघ्र आदि हिंसक जन्तुओं के कारण बन महा भयानक प्रतीत होता था। तुम भी सखी के साथ जंगल में घूमती हुई भयानक जंगल में एक नदी के तट पर एक गुफा में पहुँचीं। उस गुफा में तुम अपनी सखी के साथ प्रवेश कर गयीं जहां तुम अन्नदान का त्याग करके बालू का लिंग बना कर मेरी आराधना करती रहीं। उसी स्थान पर भाद्र मास की हस्त नक्षत्र युक्त तृतीया के दिन तुमने मेरा विधि विधान से पूजन किया तब रात्रि को मेरा आसन डोलने लगा मैं उस स्थान पर आ गया जहां तुम और तुम्हारी सखी दोनों थीं।
मैंने आकर तुमसे कहा मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। तुम मुझसे वरदान मांगो। तब तुमने कहा हे देव यदि आप प्रसन्न हैं तो आप महादेव जो मेरे पति हो। मैं तथास्तु ऐसा ही होगा कह कर कैलाश पर्वत को चला गया। तुमने प्रभात होते ही उस बालू की प्रतिमा को नदी मे विसर्जित कर दिया। हे शुभे तुमने वहाँ अपनी सखी सहित व्रत का परायण किया इतने में हिमवान भी तुम्हें ढूंढ़ते हुए उसी वन में आ पहुँचे। वे तुम्हारे पास आ गए तुम्हें हृदय से लगा कर रोने लगे और बोले तुम इस सिंह व्याघ्रादि युक्त घने जंगल में क्यों चली आई। पार्वती जी बोलीं (तुमने कहा) हे पिता! मैंने पहले ही अपना शरीर शंकर जी को समर्पित कर दिया था। किन्तु आपने इसके विपरीत कार्य किया इसलिए मैं वन में चली आई।
ऐसा सुन कर हिमवान ने फिर तुमसे कहा कि मैं तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध यह कार्य नहीं करूंगा। तब वे तुमको लेकर घर पर आये और तुम्हारा विवाह हमारे साथ कर दिया। हे प्रिये उसी व्रत के प्रभाव से तुमको यह मेरा अर्द्धासन प्राप्त हुआ है। इस व्रत राज को मैंने अभी तक किसी के सम्मुख वर्णन नहीं किया है। हे देवि! अब मैं तुमको बताता हूँ सो मन लगाकर सुनो इस व्रत का नाम व्रतराज क्यों पड़ा? तुमको सखी हरण करके ले गई थी। इसलिए इस व्रत का हरतालिका नाम पड़ा।
पार्वती जी बोलीं हे स्वामी! आपने इस व्रतराज का नाम तो बताया किन्तु मुझे इसकी विधि एंव फल भी बताइये इसके करने से किस फल कि प्राप्ति होती है।
तब शंकर जी बोले कि स्त्री जाति के अल्युतम व्रत की विधि सुनिए। सौभाग्य की इच्छा रखने वाली स्त्री इस व्रत को विधिपूर्वक करे। केले के खम्भों से मण्डप बना कर बन्दनवारों से सुशोभित करें। उसमें विविध रंगों से रेशमी वस्त्र की चांदनी तान देवें। फिर चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों से लेपन करके स्त्रियां एकत्र हो शंख भेरखी मृदग बजावें।
विधिपूर्वक मंगलाचार (गीतवाद्य) करके गौरा और शंकर स्वर्ण निर्मित प्रतिमा को स्थापित करें। फिर शिवजी व पार्वती जी का गन्ध धूप, दीप, पुष्प आदि से विधि सहित पूजन कर अनेक प्रकार के नैवेद्य (मिठाइयों) का भोग लगा दें। और रात को जागरण करें।
नारियल सुपारी, जवारी, नीबू, लौंग, अनार, नारंगी आदि फलों को एकत्रित करके धूप, दीप आदि मन्त्रों द्वारा पूजन करें। फिर मन्त्रो का उच्चारण करें। प्रार्थना करें- आप कल्याण स्वरूप शिव है मंगल रूप महेश्वरा हे शिवे! आप हमें सब कामनाओं को देने वाली देवी कल्याण रूपे तुम को नमस्कार है। कल्याण स्वरूप माता पार्वती जी हम आपको नमस्कार करते हैं और श्री शंकर जी को सदैव नमस्कार करते हैं। हे सिंहवाहिनी! संसारिक भय से व्याकुल हूँ मेरी रक्षा करे। हे महेश्वरी मैंने इसी अभिलाषा से आपका पूजन किया। हे पार्वती माता आप हमारे ऊपर प्रसन्न होकर मुझे सुख और सौभाग्य प्रदान कीजिए।
इस प्रकार उमा सहित शंकर जी का पूजन करें तथा विधि विधान सहित कथा सुन कर गौ, वस्त्र तथा आभूषण ब्राह्मणों को दान करें। इस प्रकार से पति तथा पत्नी दोनों को एकाग्र चित्त होकर पूजन करें। वस्त्र आभूषण आदि संकल्प द्वारा ब्राह्मण को दक्षिणा दें।
हे देवि! इस प्रकार व्रत करने वालों के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं फिर वह सात जन्म तक राज्य सुख और सौभाग्य को भोगती है। जो स्त्री इस तृतीया के दिन अन्नाहार करती हैं व्रत को नहीं करतीं वह सात जन्म तक वन्ध्या एवं विधवा होती हैं। जो स्त्री इस व्रत को नहीं करती वह धन और पुत्र के शोक से अधिक दुःख को भोगती हैं तथा वह घोर नरक में जाकर कष्ट पाती हैं। इस दिन अन्नाहार करने वाली शूकरी, फल खाने वाली बानरी तथा जल पीने टिटहरी, शर्वत पीने वाली जोंक दूध पीने वाली सर्पिनी मांस खाने वाली बाघिनी, दही खाने वाली बिलारी, मिठाई खाने वाली चींटी, सब चीजें खाने वाली मक्खी का जन्म पाती हैं। सोने वाली अजगरी, पति को धोखा देने वाली मुर्गी का जन्म पाती है।
स्त्रियों को परलोक सुधारने के लिए व्रत करना चाहिए। व्रत के दूसरे दिन व्रत का परायण करने के पश्चात चांदी सोना, तांबे या कांसे के पात्र में ब्राह्मण को अन्न दान करना चाहिए। इस व्रत को करने वाली स्त्रियां मेरे समान पति को पाती हैं। मृत्युकाल में पार्वती जैसे रूप को प्राप्त करती हैं जीवन संसारिक सुख को भोग कर परलोक में मुक्ति पाती हैं।
हजारों अश्वमेध यज्ञों के करने से जो फल प्राप्त होता है वही मनुष्य का इस कथा के सुनने से मिलता है हे देवि! मैंने तुम्हारे सम्मुख यह सब व्रतों में उत्तम व्रत को वर्णन किया है जिसके करने से मनुष्य के समस्त पापों का नाश हो जाता है
।। हरितालिका व्रत कथा समाप्त ।।
हरतालिका तीज पूजन विधि | Hartalika Teej puja vidhi in Hindi
- हरतालिका व्रत करने वाला प्राणी सूर्योदय से पहले उठे।
- उठकर सर्वप्रथम भगवान शंकर जी का स्मरण करे।
- फिर शौचादि नित्य कर्म से निवृत होकर स्नान ध्यान करके शिवालय अथवा जहां पूजन करना हो वहां जाएं।
- केले के बन्दनबार इत्यादि अनेक पुष्प मालाओं से सुसजित एक सुन्दर मण्डप तैयार करे।
- जिसमें स्वयं बन्धु बान्धुवों सहित आसन पर बैठे।
- हाथ में कुशा और जल लेकर संकल्प करें।
- इसके बाद अक्षत फल लेकर मन्दार माला मन्त्र से श्री शिव पार्वती जी का ध्यान करे।
- तत्पश्चात शिव-पार्वती की प्रतिमा को पंचामृत से स्नान करावे।
- वस्त्रों का जोड़ा अर्पण करे। चंदन, अक्षत लगायें। फूल माला चढ़ा कर धूप दें। दीप प्रज्वलित करें। नैवेद्य और फल, पान का बीड़ा अर्पण करे।
- शिव पार्वती का पूजन करने के पश्चात हरितालिका तीज की कथा सुने। फिर अंत मे आरती करें।
इस व्रत के व्रती को तीज की रात्रि में शयन का निषेध है, व्रती को भजन कीर्तन के साथ रात्रि जागरण करना चाहिए। प्रातः काल स्नान करने के पश्चात् श्रद्धा एवम भक्ति पूर्वक किसी सुपात्र सुहागिन महिला को श्रृंगार सामग्री ,वस्त्र ,खाद्य सामग्री ,फल ,मिष्ठान्न एवम यथा शक्ति आभूषण का दान करना चाहिए।