Mata Mansa Devi: नागमाता ‘मनसा देवी’ का रहस्य
Mata Mansadevi: एक समय की बात है, धरती पर सर्पों और नागों ने भयानक उत्पात मचा रखा था। इनसे आतंकित होकर सभी मनुष्य कश्यप मुनि की शरण में गए। तब कश्यपजी ने ब्रह्माजी के सहयोग से कुछ दिव्य मंत्रों की रचना की। ब्रह्माजी ने अपने मन से एक देवी की उत्पत्ति की और उन्हें इन मंत्रों की अधिष्ठात्री देवी बना दिया।
ब्रह्माजी के मन से प्रकट होने के कारण वे देवी मनसा नाम से प्रसिद्ध हुईं। बाद में ब्रह्माजी ने मनसा को नागों की देवी नियुक्त किया। इन देवी की स्तुति और मंत्रों से नागों के आतंक से लोगों को मुक्ति मिल गई। प्रकट होते ही मनसादेवी भगवान् शिव के धाम में चली गईं और वहाँ रहकर कठोर तप करने लगीं।
शिवजी ने प्रसन्न होकर मनसा को दिव्य ज्ञान प्रदान किया और श्रीकृष्ण के अष्टाक्षर मंत्र का उपदेश दिया। मनसादेवी ने अष्टाक्षर मंत्र का तीन युगों तक निरंतर जप करके दिव्य सिद्धि प्राप्त की। उनकी तपस्या से भगवान् श्रीकृष्ण साक्षात प्रकट हुए और उन्होंने मनसादेवी की विधिवत पूजा की। इसके बाद ब्रह्मा, शिव, कश्यप, देवगण, नागों, गंधर्वों आदि ने भी मनसादेवी की विधिवत स्तुति की। इस प्रकार जगत् में मनसा देवी के रूप में स्थापित होकर पूजी जाने लगीं।
एक प्रचलित कथा में बताया गया है कि कश्यप मुनि ने मुनिश्रेष्ठ जरत्कारु के साथ मनसा का विवाह कर दिया। विवाह से पूर्व जरत्कारु मुनि ने प्रतिज्ञा की कि जिस क्षण साधवी मनसा उनके कर्मों में बाधा बनेगी या उनकी आज्ञा का उल्लंघन करेगी, वे उसी क्षण उसका त्याग कर देंगे। विवाह के बाद भी उन्होंने तपस्वी का कठोरजीवन-क्रम जारी रखा। एक दिन वे निद्रालीन थे।
जब सूर्यदेव अस्त होने लगे, तब मनसा देवी ने विचार किया, “संध्या होने है। यदि मुनि सोए रहे तो इनका नियम भंग हो जाएगा और ये पाप के भागी बन जाएँगे।” यह विचार कर मनसा ने मुनिवर जरत्कारु को जगा दिया। निद्रा भंग होने पर जरत्कारु क्रोधित हो गए और बोले, “हे साधवी, मैं सुखपूर्वक सो रहा था। तुमने मेरा निद्रा क्यों भंग कर दी? जो स्त्री अपने पति के कर्मों में बाधा बनती है उसके व्रत, तपस्या, उपवास और दान आदि सभी सत्कर्म व्यर्थ हो जाते हैं। स्वामी का अप्रिय कार्य करनेवाली स्त्री किसी भी सत्कर्म का फल नहीं पा सकती।”
मुनि जरत्कारु को क्रोधित देख साधवी मनसा विनम्र शब्दों में बोलीं, “हे देव, मेरा उद्देश्य आपकी आज्ञा का उल्लंघन करना नहीं था। आप नियमित रूप से संध्या-पूजन करते हैं। यदि आज सोये रहते तो आपका नियम-धर्म नष्ट हो जाता। इसी भय से मैंने आपको जगा दिया।” मनसा देवी की बात सुनकर जरत्कारु मुनि प्रसन्न हो गए, किंतु अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा के लिए उन्होंने उनका त्याग कर दिया। उस समय साध्वी मनसा के शोक की कोई सीमा नहीं रही। उन्होंने शिव, ब्रह्मा, कृष्ण तथा कश्यपजी का स्मरण किया।
देवी मनसा के चिंतन करते ही सभी देवता वहाँ उपस्थित हो गए। जरत्कारु मुनि उन्हें प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे। भगवान् श्रीकृष्ण बोले, “मुनिश्रेष्ठ, तुम्हारी पत्नी मनसा एक परम साधवी स्त्री है। तुम व्यर्थ ही उसे दंड का भागी बना रहे हो। पत्नी का यह कर्तव्य है कि वह सदा अपने पति के हित का ध्यान रखे। तुम्हारे हित के लिए ही इसने अपने धर्म का उल्लंघन किया है। इसमें इसका कोई दोष नहीं हैं, किंतु यदि तुम फिर भी इसे त्यागना ही चाहते हो तो इसे जननी बना दो, जिससे कि यह अपने मातृ धर्म का पालन कर सके।”
भगवान् श्रीकृष्ण की बात सुनकर मुनि जरत्कारु ने मंत्र पढ़कर मनसा देवी का स्पर्श किया और बोले, “प्रिय, इस स्पर्श से तुम्हें एक पराक्रमी और ज्ञानवान पुत्र प्राप्त होगा। वह जितेन्द्रिय, पुरुषों में श्रेष्ठ, धर्मिक, ब्रह्मज्ञानी, तेजस्वी, तपस्वी, यशस्वी, ज्ञानियों और योगियों में प्रमुख, विष्णुभक्त तथा अपने कुल का उद्धारक होगा। हे प्रिय, प्रतिज्ञावश मैंने तुम्हारा त्याग कर दिया, मेरे इस अपराध को क्षमा करो। मैं तपस्या करने के लिए जा रहा हूँ। तुम भी सुखपूर्वक यहाँ से जाओ।” मुनिवर जरत्कारु के ये वचन सुनकर मनसा देवी दुःखी होकर बोलीं, “हे देव, पत्नी के लिए उसका पति सौ पुत्रों से भी अधिक प्रिय होता है।
इसी कारण विद्वानों ने पति को प्रिय की संज्ञा दी है। एक पुत्रवालों का पुत्र में, वैष्णव पुरुषों का भगवान् श्रीहरि में, विद्वानों का शास्त्रों में, वैश्यों का वाणिज्य में निरंतर मन लगा रहता है, उसी प्रकार पतिव्रता स्त्रियों का मन सदा अपने स्वामी के चरण कमलों में लगा रहता है। अतः हे देव, मेरी प्रार्थना है कि मैं जब भी आपका स्मरण करूँ, आप उसी क्षण दर्शन मुझे देकर कृतार्थ करें।”
मुनि जरत्कारु दया के सागर थे। उन्होंने मनसा को इच्छित वर प्रदान कर दिया और श्रीकृष्ण के चरणों का स्मरण करते हुए तपस्या करने के लिए वन को चले गए। मनसा देवी कश्यप ऋषि के आश्रम में आकर रहने लगीं। वहाँ भगवती माता ने दर्शन देकर उन्हें दिव्य ज्ञान प्रदान किया। जरत्कारु ऋषि के वरदानस्वरूप मनसा ने एक पुत्र को जन्म दिया।
जब वह गर्भ में था तभी शिवजी ने उसे वेदों, पुराणों और महामृत्युंजय मंत्र का सारा ज्ञान प्रदान कर दिया था। वह बालक बड़ा होकर योगियों और ज्ञानियों का गुरु बना। भगवान् शिव ने उसका नामकरण किया। पिता के अस्त होने के अवसर पर उसकी उत्पत्ति हुई थी, इसलिए उसका नाम आस्तीक रखा गया।
जब राजा जनमेजय ने अपने पिता परीक्षित की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए एक विशाल सर्प यज्ञ का आयोजन किया तो तक्षक नाग और देवराज इंद्र ने आस्तीक मुनि से सहायता की प्रार्थना की। तब आस्तीक मुनि ने ही जनमेजय को सर्प यज्ञ बंद करने के लिए विवश किया था।
उनके इस कार्य से प्रसन्न होकर देवताओं ने भक्तिपूर्वक उनकी माता मनसा देवी की स्तुति की। मनसा देवी लंबे समय तक कश्यपजी के आश्रम में रहीं। फिर अपने अवतार को सार्थक कर वापस स्वर्ग लौट गईं।
हिंदू देवी-देवताओं की लीला-कथाएँ