राम प्रसाद बिस्मिल (Ram Prasad Bismil)
राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ (Ram Prasad Bismil) भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की क्रान्तिकारी धारा के एक प्रमुख सेनानी थे। बिस्मिल मैनपुरी षड्यन्त्र व काकोरी-काण्ड जैसी कई घटनाओं में शामिल थे तथा हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के सदस्य भी थे। इन्हें 30 वर्ष की आयु में ब्रिटिश सरकार द्वारा फाँसी दे दी गयी थी।
Ram Prasad Bismil Quick Info
नाम | राम प्रसाद बिस्मिल |
उपनाम : | ‘बिस्मिल’, ‘राम’, ‘अज्ञात’ |
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जन्म | 11 जून 1997 शाहजहाँपुर, भारत |
मृत्यु | 19 दिसंबर, 1927 गोरखपुर जेल |
पिता | मुरलीधर |
माता | मूलमती |
धर्म | हिन्दू (ब्राह्मण) |
प्रसिद्धि | स्वतंत्रता सेनानी, कवि, अनुवादक, बहुभाषाविद् |
आन्दोलन: | भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम |
प्रमुख संगठन: | हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन |
उपजीविका: | कवि, साहित्यकार |
विशेष योगदान | काकोरी काण्ड को अंजाम था। |
राम प्रसाद बिस्मिल, जीवनी (Ram prasad Bismil Biography / History in Hindi)
रामप्रसाद का जन्म 11 जून 1997 (ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी ‘निर्जला एकादशी’ विक्रमी संवत् 1954) को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर नामक स्थान पर हुआ था।बिस्मिल के पिता का नाम मुरलीधर और माता का नाम मूलमती था।
रामप्रसाद अपने पिता मुरलीधर और माता मूलमती की दूसरी सन्तान थे। उनसे पूर्व एक पुत्र पैदा होते ही मर चुका था।
पारिवारिक जीवन (Ram Prasad Bismil Family in Hindi)
रामप्रसाद के पिता मुरलीधर ज्यादा पड़े लिखे नही थे। वे शाहजहाँपुर नगरपालिका में कर्मचारी थे। कुछ समय बाद में नौकरी से ऊब गये और नौकरी छोड़कर स्वतंत्र जीवन-यापन शुरू कर दिया। वे व्याज पर धन देने लगे और बाद में गाड़ियां भी किराये पर चलने लगी।
ज्योतिषियों ने की थी भविष्यवाणी
ज्योतिषियों ने, राम प्रसाद बिस्मिल की जन्म-कुण्डली व दोनों हाथ की दसो उँगलियों में चक्र के निशान देखकर एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी – “यदि इस बालक का जीवन किसी प्रकार बचा रहा, यद्यपि सम्भावना बहुत कम है, तो इसे चक्रवर्ती सम्राट बनने से दुनिया की कोई भी ताकत रोक नहीं पायेगी।”
शिक्षा और प्रारम्भिक जीवन (Early Life and Education)
बिस्मिल की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। सात वर्ष की अवस्था हो जाने पर बालक रामप्रसाद को पिता पंडित मुरलीधर घर पर ही हिन्दी अक्षरों का ज्ञान कराने लगे। उन दिनों भारत मे उर्दू का काफी चलन था, इसलिए उर्दू सीखने के लिए मौलवी के पास भी भेजा गया।
बिस्मिल का मन खेलने में अधिक और पढ़ने में कम लगता था। इसके विपरीत पंडित मुरलीधर को पढ़ाई के मामले में जरा भी लापरवाही पसंद न थी। इसलिए पढ़ाई को लेकर बिस्मिल की मार भी पड़ती रहती थी। अपनी इस मार का वर्णन करते हुए अपनी बायोग्राफी पर लिखा है-
‘बाल्यकाल से पिताजी मेरी शिक्षा का अधिक ध्यान रखते थे और जरा सी भूल करने पर बहुत पीटते थे। मुझे अब भी भली-भांति स्मरण है कि जब मैं नागरी के अक्षर लिखना सीख रहा था तो मुझे ‘उ’ लिखना न आया। मैंने बहुत प्रयत्न किया। पर जब पिताजी कचहरी चले गये तो मैं भी खेलने चला गया। पिताजी ने कचहरी से आकर मुझसे ‘उ’ लिखवाया, मैं न लिख सका। उन्हें मालूम हो गया कि मैं खेलने चला गया था। इस पर उन्होंने मुझे बन्दूक के लोहे के गज से इतना पीटा कि गज टेढ़ा पड़ गया। मैं भागकर दादाजी के पास चला गया, तब बचा।’
किसी प्रकार बिस्मिल ने 14 वर्ष की आयु में उर्दू विषय से चौथी कक्षा की पढ़ाई पूरी कर ली। पर उर्दू मिडिल की परीक्षा में उत्तीर्ण न होने पर अंग्रेजी पढ़ना प्रारम्भ किया।
उर्दू के उपन्यास से शायरी तक का सफर
बिस्मिल उर्दू के प्रेमरस से परिपूर्ण उपन्यासों व गजलों की पुस्तकें पढ़ने के आदी हो गए थे। लेकिन पिताजी उसके लिए पैसे नहीं देते थे। ऐसे में बिस्मिल ने एक सरल रास्ता चुना, वह पिता के संदूक से पैसे चुराने लगे।
14 वर्ष की आयु तक आते आते बुरी संगती के कारण उन्हें बीड़ी-सिगरेट पीने की लत भी लग गई। कभी-कभी वह भाग और चरस भी पी लेते। इसी कारण रामप्रसाद पांचवी कक्षा में दो बार फेल हो गया। जब पिता को पैसे चुराने की भनक लगी तो उनकी खूब पिटाई हुई, उपन्यास व अन्य किताबें फाड़ डाली गयीं। आगे चलकर जब उनको थोड़ी समझ आयी तभी वे इस दुर्गुण से मुक्त हो सके।
रामप्रसाद ने अंग्रेज़ी पाठशाला में जाने की या प्रकट की। पिताजी इसके लिए राजी नहीं हुए। किन्तु जय रामप्रसाद की माँ ने बेटे का पस लिया, कम पिता ने उसे अंग्रेजी पाठयारणा में भर्ती करा दिया।
पुजारी के संगत से बुरी आदत छोड़ी
रामप्रसाद के घर के पास एक मंदिर था। उसमें नये पुजारी जी आये। पुजारी एक सुलझे हुए विद्वान व्यक्ति थे। उन्हें राम प्रसाद से बहुत लगाव था। उनके प्रेम और मार्गदर्शन के कारण राम प्रसाद की सब बुरी आदतें छूट गयी। वह नियम से पूजा भी करने लगें।
एक बीड़ी पीने की लत रह गयी थी, वह भी बाद में पाठशाला के मित्र सुशीलचन्द्र सेन की संगति के कारण छूट गयी। रामप्रसाद में अप्रत्याशित परिवर्तन हो चुका था, शरीर सुन्दर व बलिष्ठ हो गया था। उनका मन पढ़ाई में भी लगने लगा। बहुत शीघ्र ही वह अंग्रेजी के पाँचवें दर्ज़े में आ गए।
इसी दौरान वह मन्दिर में आने वाले मुंशी इन्द्रजीत से उसका सम्पर्क हुआ। मुंशी इन्द्रजीत ने रामप्रसाद को आर्य समाज के सम्बन्ध में बताया और स्वामी दयानन्द सरस्वती की लिखी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश दी। सत्यार्थ प्रकाश के गम्भीर अध्ययन से रामप्रसाद आर्य समाज के समर्थक बन गए।
राम प्रसाद बिस्मिल शायर और अनुवादक के रुप में (Ram Prasad Bismil As a Writer)
राम प्रसाद बहुभाषाभाषी, इतिहासकार व साहित्यकार भी थे। बिस्मिल उनका उर्दू तखल्लुस (उपनाम) था जिसका हिन्दी में अर्थ होता है आत्मिक रूप से आहत। बिस्मिल के अतिरिक्त वे राम और अज्ञात के नाम से भी लेख व कवितायें लिखते थे।
उन्होंने हिंदी से बंगाली में अनुवाद का काम भी किया। उनकी द्वारा किए गए काम में बोल्शेविक प्रोग्राम, अ सैली ऑफ द माइंड, स्वदेशी रंग और कैथरीन शामिल है। ऋषि अरबिंदो की योगिक साधना का राम प्रसाद ने अनुवाद किया था। उनके सभी काम को ‘सुशील मेला’ नाम की सीरीज में प्रकाशित किया गया है
अपने 11 वर्ष के क्रांतिकारी जीवन में उन्होंने 19 पुस्तकें प्रकाशित करी और प्राप्त रकम का प्रयोग उन्होंने हथियार खरीदने में किया। जिसमे से अधिकतर सरकार द्वारा ज़ब्त कर ली गयीं।
क्रांति के क्षेत्र में (Revolutionary Activities)
सन 1916 में 19 वर्ष की आयु में राम प्रसाद ने क्रांति के मार्ग में अपना पहला कदम रखा। सन 1914 में परमानन्द की फाँसी का समाचार सुनकर रामप्रसाद ब्रिटिश साम्राज्य को समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञा कर चुके थे।
सन 1916 में एक पुस्तक छपकर आ चुकी थी। वो अब तक ‘बिस्मिल’ के नाम से प्रसिद्ध हो चुके थे।
मातृवेदी संगठन का गठन किया
पं॰ गेंदालाल दीक्षित के मार्गदर्शन में बिस्मिल ने ‘मातृवेदी’ नाम का एक संगठन खड़ा कर लिया। पं. गेंदालाल दीक्षित, ब्रह्माचारी, लक्ष्मणानंद के प्रयासों से चंबल घाटी में सक्रिय डाकू सरदार पंचम सिंह को भी संस्था में जोड़ लिया था।
इस संगठन के पास पांच सौ घुड़सवार, दो सौ पैदल सैनिक तथा आठ लाख रुपये का नकद कोष था। जो क्रांतिकारियों के वेतन व अस्त्र शस्त्र खरीदने पर खर्च की जाती थी।
दल के लिये धन एकत्र करने के उद्देश्य से रामप्रसाद ने जून 1818 में दो तथा सितम्बर 1918 में एक कुल मिलाकर तीन डकैती भी करी।
मैनपुरी षड्यंत्र (Mainpuri conspiracy)
दल ने अस्त्र-शस्त्र खरीदने के लिए सिरसागंज के सेठ ज्ञानचंद्र के यहां डकैती डालने की योजना बनाई। इन सैनिकों में एक पुलिस का गुप्तचर भी शामिल हो गया।
उसने ब्रह्माचारी को मौत के घाट उतारने के लिए भोजन में जहर मिला दिया। भोजन करते ही जब उनकी जीभ लड़खड़ाने लगी तो उन्हें तुरंत ही मुखबिर पर भोजन में जहर मिलाने का संदेह हो गया। उन्होंने अपनी बंदूक उठाकर देशद्रोही की हत्या कर दी। गोली चलने की आवाज सुनते ही वहां छिपी अंग्रेज पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी।
इस भीषण मुठभेड़ में 50 अंग्रेज़ सैनिक को मार गिराया गया। जबकि 35 क्रांतिकारियों ने वीरगति प्राप्त की। इसे ही बाद में अंग्रेजों ने मैनपुरी षडयन्त्र कहा।
काकोरी कांड को अंजाम दिया (Kakori conspiracy)
‘मैनपुरी षड्यंत्र’ में भी अहम रह चुके बिस्मिल को क्रांतिकारी आंदोलन के लिए धन जुटाने की कवायद के तौर पर लखनऊ के काकोरी कांड को अंजाम दिया। इसी मामले में राम प्रसाद को फांसी की सज़ा मिली थी। (काकोरी कांड का विस्तृत उल्लेख हमनें अशफाक उल्लाह खां की जीवनी में किया है।)
राम प्रसाद बिस्मिल की गिरफ्तारी कैसे हुई?
काकोरी कांड के दौरान घटनास्थल पर मिली चादर ने ब्रिटिश पुलिस को क्रांतिकारियों को पकड़वाने में बड़ी भूमिका निभाई। चादर पर लगे धोबी के निशान से पता चल गया कि चादर बिस्मिल के साथी बनारसीलाल की है।
इस तरह से पुलिस यह पता लगाने में सफल रही कि काकोरी कांड में कौन-कौन लोग शामिल थे। फिर क्रांतिकारियों की बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी की गई और मुकदमा चला गया। बिस्मिल को काकोरी कांड के लिए फांसी की सजा सुनाई गई और 19 दिसंबर, 1927 को उनको फांसी की तारीख तय की गई।
रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा (Autobiography of Ram Prasad Bismil)
बिस्मिल को तत्कालीन संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध की लखनऊ सेण्ट्रल जेल की 19 नम्बर बैरक में रखा गया था। उसके बाद 10 अगस्त 1927 को लखनऊ जेल से गोरखपुर जेल लाया गया था। उन्हें कोठरी संख्या सात में रखा गया था। उस समय इसे ‘तन्हाई बैरक’ कहा जाता था।
बिस्मिल ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में गोरखपुर जेल में अपनी आत्मकथा लिखी। फांसी के तख्ते पर झूलने के तीन दिन पहले तक वह इसे लिखते रहे। इस विषय में उन्होंने स्वयं लिखा है-
‘आज 16 दिसम्बर, 1927 ई. को निम्नलिखित पंक्तियों का उल्लेख कर रहा हूं, जबकि 19 दिसंबर, 1927 ई. सोमवार (पौष कृष्ण 11 संवत 1984) को साढ़े छ: बजे प्रात: काल इस शरीर को फांसी पर लटका देने की तिथि निश्चित हो चुकी है। अतएव नियत सीमा पर इहलीला संवरण करनी होगी।’
राम प्रसाद बिस्मिल को फांसी (How Did Ram Prasad Bismil Died)
19 दिसम्बर, 1927 की प्रात: बिस्मिल नित्य की तरह चार बजे उठे। नित्यकर्म, स्नान आदि के बाद संध्या उपासना की। अपनी माँ को पत्र लिखा और फिर महाप्रयाण बेला की प्रतिक्षा करने लगे।
जब जेल अथॉरिटीज राम प्रसाद बिस्मिल को फांसी के लिए लेने आईं तो वह काफी अच्छे मूड में थे और कसरत करते नजर आए। जब उनसे पूछा गया कि अब तो फांसी दी जा रही है तो वह क्यों कसरत कर रहे हैं, इस पर उन्होंने जवाब दिया, मैं कसरत कर रहा हूं ताकि स्वस्थ रहूं औऱ अगले जन्म में ब्रिटिश हुकूमत का खात्मा कर सकूं।
राम प्रसाद प्रसन्न मुद्रा में ‘वन्दे मातरम’ तथा ‘भारत माता की जय’ का उद्घोष करते हुए उनके साथ चल पड़े। फांसी के तख्ते में चढ़कर ‘विश्वानिदेव सवितर्दुरितानि..” वेद मंत्र का जाप किया। फिर ‘वंदे मातरम’ कहते हुए फांसी के फंदे में झूल गए।
फांसी पर चढ़ने से पहले बिस्मिल ने एक शेर भी गाया था-
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है।’
शुक्रवार को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में जन्मे राम प्रसाद 30 वर्ष की आयु में पौष कृष्ण एकादशी (सफला एकादशी), सोमवार, विक्रमी संवत् 1984 को शहीद हुए।
ये थी राम प्रसाद बिस्मिल की अंतिम इच्छा
फांसी देने से पहले जब राम प्रसाद बिस्मिल से उनकी अंतिम इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि- ‘मैं ब्रिटिश शासन का अंत देखना चाहता हूं।’