जब, भूल से करवा दिया रावण ने अपनी पुत्री का विवाह
यदि कोई दूसरे को दोष लगाता है कि अमुक ने मुझे दुःख दिया। तो वह उसकी दुर्बुद्धि है क्योंकि मनुष्य अपने कर्मों का फल ही सुख-दुःख के रूप में भोगता है।
सुख तथा दुःख देने वाला दूसरा कोई दूसरा नहीं है। प्रारब्ध कर्म किसी भी प्रकार नही मिटाता। इस संदर्भ में शिव भक्त रावण के जीवन की एक घटना है। आइए जानते है इस कथा को…
रावण की पुत्री का विवाह (कर्म का अकाट्य सिद्धान्त)
एक बार महाराज जनक रात्रि के तीसरे प्रहर में सिपाहियों के वेश में घूम रहे थे कि खोजें मेरे राज्य में कौन सुखी और कौन दुःखी है?’ घूमते-घूमते एक जगह देखा कि एक माँ आपने छः मास के बच्चें को दूध पिला रही थी। माँ और बालक को देखकर रास्ते से जा रही एक स्त्री हँसने लगी। और पढ़ें: रामायण के प्रमुख पात्रों का परिचय
सिपाही का वैश बनाकर घूम रहे राजा जनक ने उससे हँसने का कारण पूछा, तब वह कहने लगी “मेरे पास इतना समय नहीं है, जो मैं तुम्हें इस बालक और माता की कथा सुनाऊ” राजा ने समय न होने का कारण पूछा, तब वह कहने लगी “आज मेरे जीवन का अंतिम दिन है।”
मैं नदी पर जाकर स्नान करूंगी और के लिए जल की गागर भरकर घर पहुंचाऊंगी। फिर मेरे मकान की छत मुझ पर गिर जायेगी और मैं मर जाऊँगी। अंतिम समय कुछ ईश्वर-स्मरण कर लूँ इसलिए मुझे जल्दी जाना है। किंतु इतना बता देती हूँ कि –“वह लड़का और माता दोनों रावण की राजधानी में शुद्र माता-बेटे के रूप जन्म लेंगे तथा बेटे की शादी रावण की कन्या के साथ होगी।” ऐसा कहकर वह चल पड़ी।
राजा जनक उसके पीछे-पीछे चलने लगे और बोले “मैं राजा जनक हूँ मैं ये जानना चाहता हूं आपको कैसे पता चला कि आपके ऊपर छत गिरेगी ? स्त्री ने कहा मैं पातिव्रत्य धर्म के प्रभाव से भविष्य का सब हाल जानती हूँ।”
जब आप भविष्य देख सकते है, तो अपने प्राणों की रक्षा का उपाय क्यो नही करती। गघर जाती ही क्यों हो?” “भावी अमिट है, भावी के आगे किसी का वश नहीं चलता।” अनेक उपाय करने पर भी भावी नहीं मिटती। अगर आपको संदेह हो तो जाकर देख लीजियेगा। राजन अब मुझको न बुलाना।”
राजा को बड़ा आधर्य हुआ। वे उसके पीछे-पीछे चलते रहे। उस स्त्री ने नदी में स्नान किया और एक गागर जल भरकर घर की और जाने लगी। घर जाकर पति को स्नान के लिए वह गागर देकर स्वयं किसी कार्य विशेष के लिए घर के अंदर गयी तो अचानक ही घर छत गिर पड़ी। वह उसके नीचे दबकर मर गयी।
राजा उस स्त्री के मरने का बड़ा दुःख हुआ, परंतु भावी के आगे उनका कुछ वश न चला। समय पाकर जनक को उस के उसकी बातों को याद करते हुए रावण की राजधानी ‘लंका’ जा पहुँचे।
रावण ने राजा जनक का आतिथ्य सत्कार किया और आने का कारण पूछा। तो राजा जनक ने पतिव्रता स्त्री की सब बातें सुनायी। तब रावण ज्योतिषगण देवगण, ऋषिगण को बुलाया और सबसे प्रार्थना की कि इस भावी को मिटाने का कोई उपाय बतायें। तब सभी विद्वानों ने एक स्वर में कहा– “कर्मरेखा बदलने में हम समर्थ नहीं है।”
तब रावण को अतिक्रोध आया और उसने निश्चय किया कि जब लड़की जन्म लेगी। तो मैं कर्मरेखा लिखने वाली विधात्री के साथ लड़ाई करूंगा। जब समय आया तो लड़की का जन्म हुआ। छठी रात्रि में रावण तलवार लेकर खड़ा रहा। इतने में विधात्री कर्मफल लिखने आयी। गवण ने उसको पूछाः “क्या लिखेगी?”
उसने कहा: पहले मैं कुछ नहीं सकती। जब मैं मस्तक पर कलम रखती हूँ तब अंतर्यामी जैसी प्रेरणा करते हैं, वैसा ही लेख लिखा जाता है। लिखकर पीछे मैं बता सकती है।”
रावणः “अच्छा, मेरे सामने मस्तक पर कलम रखो।” उसने कलम रखी, अपने आप ही लेख लिखा गया। रावण ने कहाः “पढ़कर सुनाओ।”
विधात्री ने पढ़कर सुनायाः यह कन्या अति सुंदर, पतिव्रता, सदगुणसम्पन्न व शीलवती होगी किंतु इसकी शादी मंगी के लड़के के साथ होगी, जो तुम्हारे महलों में सफाई करता है।” रावण को बड़ा क्रोध आया परंतु कर्मफल अमिट है, ऐसा विधात्री ने उसे समझाया और शांत किया।
विधात्री के चले जाने के बाद रावण को फिर क्रोध आया। उसने भगी के लड़के को मँगवाया जो कि छः मास का था। रावण ने बच्चे को मार डालने का निश्चय किया परंतु बिगड़ उठी और प्रजाजन कहने लगे “बिना अपराध बच्चे को न मारें, चाहे देश निकाला है।
रावण ने उस बालक को जहाज पर चढ़ाकर समुद्र पार किसी जंगल में छुड़वा दिया, निशान के लिए लड़के के पैर की अंगुली कटवा दी। उस जंगल में किसी भी प्रकार की बस्ती न थी। अतः यह विचार किया कि यह बालक वहीं मर जायेगा।
रावण ने उस बालक को वन में छुड़वा दिया, तब तीन दिन तक बालक भूखा रहा और अंगूठा चूसता रहा। बालक की पुकार ब्रह्मलोक पहुंची। ब्रह्माजी ने विधात्री को आज्ञा दी- “तुम इस बालक का पालन पोषण करो।”
उस बालक का विधात्री ने अच्छी तरह पालन-पोषण किया और उसे हर प्रकार की उत्तम शिक्षा दी। जब बालक चतुर तथा धर्म में निपुण हो गया। तब विधात्री ने अपने द्वारा बनाये हुए जहाज पर बिठाकर उसे दूसरे एक नज़दीदी टापू में भेज दिया।
उस टापू का राजा बिना संतान के रह गया था। राजमंत्रियों ने सलाह की और निर्णय किया कि जो पुरुष अमुक दिन प्रातःकाल शाही दरवाजा खुलते ही सबसे पहले मिलेगा, उसी को राज गद्दी पर बिठायेंगे।”
दैवयोग से उस दिन शाही दरवाजा खुलने पर वही युवक पहले मिल गया। राजमंत्रियों ने इसको राजगहरी पर बिठाकर इसका नाम दैवगति रख दिया। वह विधात्री से शिक्षा पा चुका था, इसलिए प्रजापालन में बड़ा निपुण था। उसका यश चारों दिशाओं में फैल गया।
रावण और उसकी कन्या को दैवगति के बारे में मालूम हुआ तथा उसका चित्र भी उनके पास पहुँच गया। जब उन्होंने चित्र में दैवगति की सुंदरता देखी और दूतों से उसका यशोगान सुना, तब रावण को लगा कि ‘अपनी कन्या का विवाह इसी के साथ कर दें। और कन्या का भी मन दैवगति के पास अपने संदेश के साथ भेजा परंतु दैवगति ने शादी के लिए मना कर दिया।
फिर रावण स्वयं कन्या को लेकर वहाँ गया और तुरंत उन दोनों की शादी करा दी। प्रसन्न होकर वापस आया और सब ऋषिगण और ज्योतिषियों को बुलाकर उनसे कहा- “आप सब कहते थे ना कर्मरेखा नही बदली जा सकती?” यह सुनकर देवताओं ने कहा: “आपने उस लड़के के पैर में निशान किया था। दैवगति के पैर पर उसकी जाँच करें।”
रावण द्वारा निशान देखने पर दैवगति को उस शुद्र महिला का ही लड़का पाया गया। तब ऋषियों और ज्योतिषियों ने रावण को समझाया कि- “कर्मरेखा कभी नहीं मिटती”।