तात्या टोपे (Tatya Tope)
तात्या टोपे, भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के एक प्रमुख सेनानायक थे। सन 1857 के महान विद्रोह में उनकी भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण, प्रेरणादायक और बेजोड़ थी।
तात्या टोपे (Tatya Tope Wiki)

पूरा नाम | रामचंद्र पांडुरंग येवालकर |
अन्य नाम | तात्या टोपे, महाराष्ट्र का बाघ |
जन्म | 1814 ई. पटौदा जिला, महाराष्ट्र |
मृत्यु | 18 अप्रैल, 1859 शिवपुरी मध्य प्रदेश |
पिता | पाण्डुरंग त्र्यम्बक भट्ट |
माता | रुक्मिणी बाई |
भाषा | हिंदी, मराठी |
विवाह | अविवाहित |
प्रसिद्धि | स्वतंत्रता सेनानी |
विशेष योगदान | भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई तथा नाना साहब का प्रमुख योगदान था। |
तात्या टोपे जीवनी (Tatya Tope Biography / History in Hindi)
तात्या टोपे (Tatya Tope / Tantia Tope) का जन्म सन 1814 ई. में नासिक के निकट पटौदा ज़िले में येवला नामक ग्राम के एक देशस्थ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम पाण्डुरंग त्र्यम्बक भट्ट तथा माता का नाम रुक्मिणी बाई था।
तात्या टोपे देशस्थ कुलकर्णी परिवार में जन्मे थे। पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के गृह-विभाग का काम देखते थे। तात्या अपने आठ भाई-बहनों में सबसे बडे थे। वह आजन्म अविवाहित रहे।
तात्या टोपे का प्रारम्भिक जीवन (Early Life of Tantia Tope)
तात्या टोपे का वास्तविक नाम ‘रामचंद्र पांडुरंग येवलकर’ था। ‘तात्या’ मात्र उपनाम था। तात्या शब्द का प्रयोग अधिक प्यार के लिए होता था। क्योंकि उनका परिवार मूलतः नासिक के निकट पटौदा ज़िले में छोटे से गांव येवला में रहता था, इसलिए उनका उपनाम येवलकर पड़ा।
टोपे भी उनका उपनाम ही था। कहते हैं तोपखाने में नौकरी के कारण ही उनके नाम के साथ टोपे जुड गया, परंतु कुछ लोगो का कहना है कि बाजीराव ने तात्या को एक बेशकीमती टोपी दी थी। अतः बडे ठाट-बाट से वह टोपी पहनने के कारण लोग उन्हें तात्या टोपी या तात्या टोपे के नाम से पुकारे नाने लगे।
पेशवा बाजीराव और तात्याटोपे (Tatya Tope & Peshwa Baji Rao Relationship)
(तात्या के पिता पाण्डुरंग राव भट्ट़ (मावलेकर), पेशवा बाजीराव द्वितीय केे बाजीराव के प्रति स्वामिभक्त होने के कारण वे बाजीराव के साथ सन् 1818 में बिठूर चले गये थे।
कुछ समय तक तात्या ने ईस्ट इंडिया कम्पनी में बंगाल आर्मी की तोपखाना रेजीमेंट में भी काम किया था, परन्तु स्वाभिमानी तात्या ने जल्दी उन्होंने उस नौकरी से छुटकारा पा लिया और बाजीराव की नौकरी में वापस आ गये।
1857 के विद्रोह में भूमिका (Tatya Tope and Rebellion of 1857)
1857 के विद्रोह की शुरुआत 10 मई को मेरठ से हुई थी। जल्दी ही क्रांति की चिन्गारी समूचे उत्तर भारत में फैल गयी।
सन् 1857 के विद्रोह की लपटें जब कानपुर जा पहुँचीं और वहाँ के सैनिकों ने नाना साहब को पेशवा को अपना नेता घोषित किया तो तात्या टोपे ने कानपुर में स्वाधीनता स्थापित करने में अगुवाई की। तात्या टोपे को नाना साहब ने अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया।
जब ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक की कमान में अंग्रेज सेना ने कानपुर पर हमला किया तब तात्या ने कानपुर की सुरक्षा में अपना जी-जान लगा दिया, परंतु 16 जुलाई, 1857 को उसकी पराजय हो गयी और उसे कानपुर छोड देना पडा।
शीघ्र ही तात्या टोपे ने अपनी सेनाओं का पुनर्गठन किया और कानपुर से 12 मील उत्तर मे बिठूर पहुँच गये। यहाँ से कानपुर पर हमले का मौका खोजने लगे। इस बीच हैवलॉक ने अचानक ही बिठूर पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि तात्या बिठूर की लडाई में पराजित हो गये।
तात्या टोपे पराजय से विचलित न होते हुए वे बिठूर से राव साहेब सिंधिया के इलाके में पहुँचे। वहाँ वे ग्वालियर कन्टिजेन्ट नाम की प्रसिद्ध सैनिक टुकडी को अपनी ओर मिलाने में सफल हो गये। वहाँ से वे एक बडी सेना के साथ काल्पी पहुँचे।
नवंबर 1857 में उन्होंने कानपुर पर आक्रमण किया। मेजर जनरल विन्ढल के कमान में स्थित अंग्रेज सेना तितर-बितर होकर भाग गयी, परंतु यह जीत थोडे समय के लिए थी। ब्रिटिश सेना के प्रधान सेनापति सर कॉलिन कैम्पबेल ने तात्या को छह दिसंबर को पराजित कर दिया। इसलिए तात्या टोपे खारी चले गये और वहाँ नगर पर कब्जा कर लिया।
खारी में उन्होंने अनेक तोपें और तीन लाख रुपये प्राप्त किए जो सेना के लिए जरूरी थे। इसी बीच 22 मार्च को सर ह्यूरोज ने झाँसी पर घेरा डाला। ऐसे नाजुक समय में तात्या टोपे करीब 20,000 सैनिकों के साथ रानी लक्ष्मी बाई की मदद के लिए पहुँचे। रानी औऱ तात्या की विजय हुई। तात्या टोपे इसके बाद काल्पी पहुँचे। इस युद्ध में तात्या टोपे को एक बार फिर ह्यूरोज के खिलाफ हार का मुंह देखना पडा।
कानपुर, चरखारी, झाँसी और कोंच की लडाइयों की कमान तात्या टोपे के हाथ में थी। चरखारी को छोडकर दुर्भाग्य से अन्य स्थानों पर उनकी पराजय हो गयी।
तात्या ने काल्पी की सुरक्षा का भार झांसी की रानी और अपने अन्य सहयोगियों पर छोड दिया और वे स्वयं वेश बदलकर ग्वालियर चले गये। जब ह्यूरोज काल्पी की विजय का जश्न मना रहा था, तब महाराजा जयाजी राव सिंधिया की फौज को अपनी ओर मिला लिया था और ग्वालियर के प्रसिद्ध किले पर कब्जा कर लिया था।
झाँसी की रानी, तात्या और राव साहब ने जीत के ढंके बजाते हुए ग्वालियर में प्रवेश किया और नाना साहब को पेशवा घोशित किया। इस रोमांचकारी सफलता ने स्वाधीनता सेनानियों के दिलों को खुशी से भर दिया, परंतु इसके पहले कि तात्या टोपे अपनी शक्ति को संगठित करते, ह्यूरोज ने आक्रमण कर दिया।
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब पेशवा, राव साहब, बहादुरशाह जफर आदि के विदा हो जाने के बाद भी विद्रोहियों की कमान संभाले रहे। उनका जीवन अद्वितीय शौर्य गाथा से जीवन भरा रहा।
छापेमार युद्ध का संचालन (The Guerilla Hero of 1857)
लगभग सब स्थानों पर विद्रोह कुचला जा चुका था। लेकिन तात्या ने एक साल की लम्बी अवधि तक मुट्ठी भर सैनिकों के साथ अंग्रेज सेना को कड़ी चुनोती दी।
उन्होंने अंग्रेज़ो के खिलाफ छापेमार युद्ध का संचालन किया, जिसने उन्हें दुनिया के छापेमार योद्धाओं की पहली पंक्ति में लाकर खडा कर दिया।
इस छापेमार युद्ध के दौरान तात्या टोपे ने दुर्गम पहाडयों, घाटियों, नदियों और भयानक जंगलों के पार मध्यप्रदेश और राजस्थान में ऐसी लम्बी दौड-दौडी जिसने अंग्रेजी कैम्प में तहलका मचाये रखा।
बार-बार उन्हें चारों ओर से घेरने का प्रयास किया गया और बार-बार तात्या को लडाइयाँ लडनी पडी, परंतु यह छापामार योद्धा कभी अंग्रेजों के हाथ नही आया। तत्कालीन अंग्रेज लेखक सिलवेस्टर ने लिखा था कि ’’हजारों बार तात्या टोपे का पीछा किया गया और चालीस-चालीस मील तक एक दिन में घोडों को दौडाया गया, परंतु तात्या टोपे को पकडने में कभी सफलता नहीं मिली।‘‘
अंग्रेजों को खूब दौड़ाया (Terrified the British Army)
ग्वालियर से निकलने के बाद तात्या ने चम्बल पार कर राजस्थान चले गये। उनका इरादा पहले जयपुर और उदयपुर पर कब्जा करने का था, लेकिन मेजर जनरल राबर्ट्स वहाँ पहले से ही पहुँच गया।
परिणाम यह हुआ कि तात्या को जयपुर से 60 मील पहले ही लौटना पडा। फिर उनका इरादा उदयपुर पर अधिकार करने का हुआ, परंतु राबट्र्स ने वहां घेराबंदी कर की। उसने लेफ्टीनेंट कर्नल होम्स को तात्या का पीछा करने के लिए भेजा।भीलवाडा से आगे कंकरोली में तात्या की अंग्रेज सेना से जबर्दस्त मुठभेड हुई जिसमें वे परास्त हो गये।
कंकरोली की पराजय के बाद तात्या पूर्व की ओर भागे, ताकि चम्बल पार कर सकें। उन्होंने बाढ में ही चम्बल पार कर ली और झालावाड की राजधानी झलार पाटन पहुँचे। झालावाड का शासक अंग्रेज समर्थक था, इसलिए तात्या ने अंग्रेज सेना के उससे लाखों रुपये वसूल किए और 30 तोपों पर कब्जा कर लिया।
सितंबर, 1858 के शुरु में तात्या ने राजगढ की ओर रुख किया। वहाँ से उनकी योजना इंदौर पहुंचने की थी, परंतु इसके पहले कि तात्या इंदौर के लिए रवाना होते अंग्रेजी फौज ने मेजर जन. माइकिल की कमान में राजगढ के निकट तात्या की सेना को घेर लिया।
माइकिल की फौजें ने सुबह हमला करने का विचार किया, परंतु तात्या की सेना उसके जाल से निकल भागी है। तात्या ने ब्यावरा पहुँचकर मोर्चाबंदी कर रखी थी। यहाँ अंग्रेजों ने पैदल, घुडसवार और तोपखाना दस्तों को लेकर एक साथ आक्रमण किया। यह युद्ध भी तात्या हार गये। उनकी 27 तोपें अंग्रेजों के हाथ लगीं।
तात्या पूर्व में बेतवा की घाटी की ओर चले गये। सिरोंज में तात्या ने चार तोपों पर कब्जा कर लिया और एक सप्ताह विश्राम किया। सिरोंज से वे उत्तर में ईशागढ पहुँचे और कस्बे को लूटकर पाँच और तोपों पर कब्जा किया। ईशागढ से तात्या की सेना दो भागों में बँट गयी। एक टुकडी राव साहब की कमान में ललितपुर चली गयी और दूसरी तात्या की कमान में चंदेरी।
तात्या का विश्वास था कि चंदेरी में सिंधिया की सेना उसके साथ हो जाएगी, परंतु ऐसा नहीं हुआ। इसलिए वे 20 मील दक्षिण में, मगावली चले गये। वहाँ माइकिल ने उनका पीछा किया और 10 अक्टूबर को उनको पराजित किया। अब तात्या ने बेतवा पार की और ललितपुर चले गये जहाँ राव साहब भी मौजूद थे।
उन दोनों का इरादा बेतवा के पार जाने का था परंतु नदी के दूसरे तट पर अंग्रेज सेना रास्ता रोके खडी थी। चारों ओर घिरा देखकर तात्या ने नर्मदा पार करने का विचार किया। इस मंसूबे को पूरा करने के लिए वे सागर जिले में खुरई पहचे, जहाँ माइकिल ने उसकी सेना के पिछले दस्ते को परास्त कर दिया। इसलिए तात्या ने होशंगाबाद और नरसिंहपुर के बीच, फतेहपुर के निकट सरैया घाट पर नर्मदा पार की। तात्या ने अक्टूबर, 1858 के अंत में करीब 2500 सैनिकों के साथ नरमदा पार की थी।
नर्मदा पार करके और उसकी दक्षिणी क्षेत्र में प्रवेश करके तात्या ने अंग्रेजों के दिलों में दहशत पैदा कर दी। तात्या इसी मौके की तलाश में थे और अंग्रेज भी उनकी इस योजना को विफल करने के लिए समूचे केन्द्रीय भारत में मोर्चाबंदी किये थे।
नागपुर में तात्या के पहुँचने से बम्बई प्रांत का गर्वनर एलफिन्सटन घबरा गया। मद्रास प्रांत में भी घबराहट फैली। तात्या अपनी सेना के साथ पचमढी की दुर्गम पहाडयों को पार करते हुए छिंदवाडा के 26 मील उत्तर-पश्चिम में जमई गाँव पहुँच गये। वहाँ के थाने के 17 सिपाही मारे गये। फिर तात्या बोरदेह होते हुए सात नवंबर को मुलताई पहुँच गये। दोनों बैतूल जिले में हैं।
मुलताई में तात्या ने एक दिन विश्राम किया। मुलताई के देशमुख और देशपाण्डे परिवारों के प्रमुख और अनेक ग्रामीण उसकी सेना में शामिल हो गये।
अंग्रेजों ने बैतूल में उनकी मजबूत घेराबंदी कर ली। पश्चिम या दक्षिण की ओर बढने के रास्ते बंद थे। अंततः तात्या ने मुलताई को लूट लिया और सरकारी इमारतों में आग लगा दी। वे उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर मुड गये और आठनेर और भैंसदेही होते हुए पूर्व निमाड यानि खण्डवा जिले पहुँच गये।
ताप्ती घाटी में सतपुडा की चोटियाँ पार करते हुए तात्या खण्डवा पहुँचे। उन्होंने देखा कि अंग्रेजों ने हर एक दिशा में उनके विरूद्ध मोर्चा बाँध दिया है। खानदेश में सर ह्यूरोज और गुजरात में जनरल राबर्ट्स उनका रास्ता रोके थे। बरार की ओर भी फौज उनकी तरफ बढ रही थी।
तात्या असीरगढ पहुँचना चाहते थे, परंतु असीर पर कडा पहरा था। अतः निमाड से बिदा होने के पहले तात्या ने खण्डवा, पिपलोद आदि के पुलिस थानों और सरकारी इमारतों में आग लगा दी। खण्डवा से वे खरगोन होते हुए सेन्ट्रल इण्डिया वापस चले गये। खरगोन में खजिया नायक अपने 4000 अनुयायियों के साथ तात्या टोपे के साथ जा मिला। इनमें भील सरदार और मालसिन भी शामिल थे।
यहाँ राजपुर में सदरलैण्ड के साथ एक घमासान लडाई हुई, परंतु सदरलैण्ड को चकमा देकर तात्या नर्मदा पार करने में सफल हो गये। भारत की स्वाधीनता के लिए तात्या का संघर्ष जारी था।
एक बार फिर दुश्मन के विरुद्ध तात्या की महायात्रा शुरु हुई खरगोन से छोटा उदयपुर, बाँसवाडा, जीरापुर, प्रतापगढ, नाहरगढ होते हुए वे इन्दरगढ पहुँचे।
इन्दरगढ में उन्हें नेपियर, शाबर्स, समरसेट, स्मिथ, माइकेल और हार्नर नामक ब्रिगेडियर और उससे भी ऊँचे सैनिक अधिकारियों ने हर एक दिशा से घेर लिया। बचकर निकलने का कोई रास्ता नहीं था, लेकिन तात्या में अपार धीरज और सूझ-बूझ थी।
तात्या टोपे की गिरफ्तारी कैसे हुई? (How did Tatya Tope arrested)
अंग्रेजों के इस कठिन और असंभव घेरे को तोडकर वे जयपुर की ओर भागे। देवास और शिकार में उन्हें अंग्रेजों से पराजित होना पडा। अब उन्हें निराश होकर परोन के जंगल में शरण लेने को विवश होना पडा।
परोन के जंगल में तात्या टोपे के साथ विश्वासघात हुआ। नरवर का राजा मानसिंह अंग्रेजों से मिल गया और उसकी गद्दारी के कारण तात्या 8 अप्रैल, 1859 को सोते वक्त पकड लिए गये। रणबाँकुरे तात्या को कोई जागते हुए नहीं पकड सका।
तात्या टोपे को फांसी की सजा (How did Tatya Tope died?)
विद्रोह और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लडने के आरोप में 15 अप्रैल, 1859 को शिवपुरी में तात्या का कोर्ट मार्शल किया गया। कोर्ट मार्शल के सब सदस्य अंग्रेज थे।
इसके बाद शिवपुरी के किले में उन्हें तीन दिन रखा गया और 18 अप्रैल 1859 को शाम पाँच बजे हजारों लोगों की उपस्थिति में खुले मैदान में फाँसी पर लटका दिया गया।
पर्सी क्रास नामक एक अंग्रेज ने लिखा है कि ’भारतीय विद्रोह में तात्या सबसे प्रखर मस्तिश्क के नेता थे। उनकी तरह कुछ और लोग होते तो अंग्रेजों के हाथ से भारत छीना जा सकता था,
लेकिन उनकी मौत को लेकर ब्रितानी सैनिक कई महीने तक संदेह में रहे. पराग टोपे के मुताबिक तात्या टोपे के साथी राम सिंह, राव सिंह और जिल जंग ये अफवाह लगातार फैलाते रहे कि तात्या टोपे ज़िंदा हैं
तात्या की मृत्यु को लेकर विवाद (Tatya Tope was killed in action or hanged?)
तात्या टोपे की मौत कैसे हुई थी। इसको लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। अधिकांश इतिहासकारों का मानना है कि तात्या टोपे को फांसी दी गई थी।
वही कुछ लोगो का मानना है कि उनकी शहादत युद्ध भूमि में हुई थी। राजा मानसिंह ने टोपे को बचाने के लिए एक रणनीति बनाई और उसमें नारायण भागवत को शामिल किया। नारायण ने ही स्वयं को अंग्रेजों के हवाले करने की सलाह दी।
तात्या टोपे के वंशज पराग ने ‘तात्या टोपेज ऑपरेशन रेड लोटस’ किताब लिखी है। उनके सर्च के मुताबिक तात्या टोपे को कभी पकड़ा ही नहीं जा सका था, बल्कि उनकी मौत छापामार युद्ध में शहादत से हुई थी। पराग टोपे के मुताबिक तात्या टोपे की मौत मध्यभारत के छिपाबरों में 1 जनवरी 1859 को युद्ध में लड़ते हुए तोप के एक गोले से हुई थी।
स्वयं अंग्रेज सेना के मेजर मीड ने लिखा है वास्तव में यह राजा मानसिंह व तात्या की एक चाल थी, जिसमें टोपे को भागने का मौका मिल गया।