वैभव लक्ष्मी व्रत कथा और पूजा विधि
हिन्दू मान्यता में शुक्रवार को लक्ष्मी देवी का व्रत रखा जाता है। इसे वैभवलक्ष्मी व्रत भी कहते है। इस दिन स्त्री-पुरुष देवी लक्ष्मी की पूजा-अर्चना करते हुए श्वेत पुष्प, श्वेत चंदन से पूजा कर तथा चावल और खीर से लक्ष्मी को भोग लगाकर प्रसाद ग्रहण करते हैं।
वैभव लक्ष्मी व्रत
नाम | वैभव लक्ष्मी व्रत |
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अनुयायी | हिन्दू, भारतीय, भारतीय प्रवासी |
संबंध | लक्ष्मी देवी |
प्रकार | हिन्दू व्रत |
उद्देश्य | धन वैभव प्राप्ति |
आरम्भ | शुक्रवार |
मां लक्ष्मी के संबंध में (About Goddess Lakshmi)
श्री महालक्ष्मी के संबंध में अनेक लोक कथाएं प्रचलित हैं। पुराणों के अनुसार सुरों और असुरों द्वारा किये गये समुद्र मंथन में चौदह रत्नों से युक्त महालक्ष्मी जी का प्राकट्य हुआ था।
शास्त्रों में कहा गया है कि लक्ष्मी सुयोग्य व्यक्ति के पास ही रह सकती है। सृष्टि में ब्रह्मा, विष्णु, शिव को सुयोग्य और शक्तिशाली स्वीकार करते हुए सृष्टि के संरक्षक भगवान विष्णु को लक्ष्मी प्रदान की गई।
लक्ष्मी के अनेक नाम एवं स्वरूप हैं। ये स्वर्ग लक्ष्मी, गृह लक्ष्मी, संतान लक्ष्मी, गजलक्ष्मी आदि रूपों में सर्वव्यापिनी है। दुःख-दारिद्रय को दूर करने हेतु इनसे अधिक उत्तम व्रत किसी अन्य देवी-देवता का नहीं है।
भगवती लक्ष्मी का पूजन सभी देवी-देवताओं ने किया है। द्वापर में युधिष्ठिर ने अपने खोए हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने हेतु लक्ष्मी जी का व्रत किया। बगैर धन, वैभव के सभी सुख मनुष्य, देवता, असुरों से दूर रहते हैं। अतः इस सृष्टि में लक्ष्मी व्रत से बढ़कर अन्य कोई व्रत नहीं है
वैभव लक्ष्मी व्रत के नियम (Rules of Vaibhava Lakshmi vrat )
लक्ष्मी प्राप्ति के लिए तप, साधना और त्याग की जरूरत है। लक्ष्मी जी को मन में धारण कर उनका व्रत रखें तथा जब तक वो प्रसन्न न हो तब तक साधना करते रहें। इस व्रत को करने के लिए हमारे धार्मिक जगद्गुरुओं एवं पूर्वजों ने कुछ नियम एवं विधान निश्चित किये हैं जो निम्न हैं-
- इस व्रत को किसी भी शुक्रवार से शुरू करे सकते हैं, “परन्तु यदि शुक्ल पक्ष का शुक्रवार हो तो उत्तम है।
- व्रत आरम्भ करते समय व्रती को यह संकल्प भी लेना चाहिए कि इतने शुक्रवार तक मैं यह व्रत अवश्य करूंगा। इस हेतु 7, 11, 21, 31, 51, 101 शुक्रवारों तक व्रत करने का संकल्प लेना चाहिए।
- इस व्रत को यदि सौभाग्यवती स्त्रियाँ करें तो इसका फल अधिक मिलता है यदि किसी कारण वश स्त्री व्रत करने में असमर्थ हो तो पुरुष भी व्रत कर सकता है।
- व्रत करने वाला यदि विवाहित हो तो दोनों पति-पत्नी मिलकर इस व्रत को करें तो माँ लक्ष्मी अत्यन्त प्रसन्न होती हैं।
- यदि संकल्प की अवधि में कामना पूरी हो जाए एवं अन्य इच्छा की कामना हो तो उद्यापन करके संकल्प लेकर व्रत शुरू करना चाहिए।
- यह व्रत शीघ्र फल देने वाला है परन्तु यदि फल न मिले तो व्रत को तब तक चालू रखें जब तक मनोवांछित फल न मिले। श्रद्धा, भक्ति एवं विश्वास से व्रत करने पर फल अवश्य ही मिलेगा।
- व्रत अपनी इच्छा से एवम् श्रद्धापूर्वक करना चाहिए।
- खिन्न मन से या किसी दूसरे के कहने पर बगैर श्रद्धा के व्रत सेफल नहीं मिलता।
- व्रत रखने से पहले व व्रत के दिनों में मन शुद्ध कर लें। किसी प्रकार का छल, कपट, पाप, द्वेष मन में नहीं होना चाहिए।
- व्रत करते समय मन में स्वार्थ नहीं होना चाहिए बल्कि मन में यह भाव होना चाहिए कि मुझे माँ लक्ष्मी को प्रसन्न करना है।
- 10. यदि किसी व्रत वाले शुक्रवार को स्त्री रजस्वला जो जाए तो उस दिन व्रत नहीं करना चाहिए तथा उससे अगले
- शुक्रवार से व्रत फिर आरम्भ कर देना चाहिए।
- इस व्रत को अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए क्वारी कन्याएँ भी कर सकती हैं।
वैभवलक्ष्मी माँ व्रत कथा (Story of vaibhav laxmi vrat in Hindi)
एक बड़ा नगर था। नगर में लाखों लोग निवास करते थे। बाहर से भी नित प्रति लोग रोजगार की तालाश में नगर में आते थे। उनकी एक मात्र यही अभिलाषा होती थी कि किसी तरह दो वक्त की रोटी उन्हें मिल जाए और जब प्रभु-कृपा से उन्हें दो वक्त की रोटी मिल जाती तब और अभिलाषाएँ जागृत होती थीं क्योंकि अभिलाषा का कोई अन्त नहीं है।
परन्तु मानव जीवन की एक सीमा है। लाखों करोड़ों के फेर में मनुष्य यह भूल जाता है कि यह द्वार उसे मृत्यु के द्वार तक ले जा रहा है। हम काम, क्रोध, लोभ में बंधे होकर उस प्रभु उस माँ को भी भूल जाते हैं जो इस संसार की जगत् जननी है। कलियुग में तो ऐसा ही होता है। पाप एवं अधर्म की परछाइयां और गहरा गई हैं। सभी वर्ण अपना अपना धर्म छोड़कर अन्य धर्म अपना रहे हैं।
इस बड़े नगर में भी सभी व्यक्ति एक दूसरे की परवाह किए बगैर अपनी-अपनी लालसाओं की पूर्ति के लिए जैसे भी हो धन कमाने में लगे थे। परन्तु कहावत है कि निराशा में आशा छिपी होती है। इसी तरह इस नगर में सारी बुराईयों के बावजूद कुछ अच्छे लोग भी रहते थे।
ऐसे अच्छे लोगों में गीता और उसका पति गोविन्द सुख से रहते थे। उनका छोटा सा घर था गीता धार्मिक प्रवृत्ति की गृहणी थी। गोविन्द एक मिल में नौकरी करता था वह भी बड़ा ही विवेकी एवं सुशील था। गीता घर का सारा काम काज करती। उसने अपने छोटे से घर को भी इतना साफ सुन्दर कर रखा था कि सारी मोहल्ले की औरतें उसकी तारीफ करती थीं।
गीता को चुगली इत्यादि से बड़ी नफरत थी, परन्तु मोहल्ले की अधिकतर स्त्रियाँ एक दूसरे की चुगलियाँ दिन भर किया करती थीं। वह तो केवल घर के काम काज और पति सेवा एवं प्रभु सुमिरन में ही दिन व्यतीत कर देती थी। हर शुक्रवार को गीता व्रत किया करती थी।
मोहल्ले में औरतों ने भजन मंडली बना रखी थी इसकी कर्त्ता धर्त्ता थी राधा। परन्तु गीता को ये भजन मंडली बिल्कुल पंसद न थी क्योंकि ये औरतें भजन करते समय भी एक दूसरे की चुगलियाँ करती थीं। एक बार तो गीता की राधा से इसी बात पर लड़ाई भी हो गई।
परन्तु शायद इस आदर्श परिवार को मौहल्ले वालों की नजर ही लग गई या शायद पूर्व जन्म के कुछ कर्म भोगने लिखे थे जो गोविन्द बुरी संगत में पड़कर शराब पीने लगा और जुआ खेलने लगा। शुरूआत में उसने अपने आपको इन बुरी आदतों से बचाने का बहुत प्रयास किया जैसे खरबुजे को देखकर खरबुजा रंग बदलता है वैसे ही गोविन्द का भी हाल हुआ।
एक मजदूर का वेतन होता ही कितना है जब गोविन्द अपना सारा वेतन जुए आदि में हार गया तो उसने अपनी पत्नी के जेवर एवं घर का कीमती समान भी शराब एवं जुए के लिए बेच डाले।
अब तो घर में दरिद्रता और भुखमरी फैल गई। बनिए ने भी उधार में सामान देने से इंकार कर दिया। गीता दुःखी तो बहुत हुई परन्तु उसने प्रभु पर विश्वास करना नहीं छोड़ा। उसे पूर्ण विश्वास था कि एक न एक दिन उसके हाल सुधरेंगे।
एक दिन जब वह तीन दिन से भूखी थी तो वह माँ लक्ष्मी की मूर्ति के आगे हाथ जोड़कर रोने लगी और माँ लेते-लेते बेहोश हो गई। तभी उसके द्वार पर किसी ने दस्तक दी गीता में न जाने कहाँ से उस दस्तक की आवाज सुनकर शक्ति आ गई, उसने सोचा कि इस समय इस गरीब के घर में कौन आ गया ?
हिम्मत करके उसने द्वार खोला तो सामने एक तिलकधारी ब्राह्मण को खड़ा पाया। ब्राह्मण के मुख पर तेज बिखर रहा था, उनकी आँखों में मानों अमृत झलक रहा था। गीता उस ब्राह्मण को पहचानती नहीं थी परन्तु उसको देखकर गीता का चेहरा खिल उठा। गीता ब्राह्मण को अंदर ले आयी।
ब्राह्मण बोला-बेटी ! मैं माँ लक्ष्मी के मंदिर का पुजारी हूँ जहाँ तुम हर शुक्रवार को आती हो। काफी समय से तुम मन्दिर नहीं आई तो मैंने सोचा कि शायद तुम बीमार हो इसीलिये देखने चला आया।
ब्राह्मण के वचन सुनकर गीता का हृदय पिघल गया। उसकी आँखों से आँसू बह निकले। वह बिलख-बिलख कर रोने लगी। यह देखकर ब्राह्मण बोला-बेटी सुख और दुःख तो छाँव-धूप के समान हैं सुख के पीछे तो दुःख आता ही है धैर्य रखो और शांत होकर अपना दुःख मुझ से कहो। शायद कोई हल निकल आये।
गीता ने कहा- आप धन्य हैं महाराज ! माँ लक्ष्मी के पुजारी होने के कारण आप धन्य हैं। तब गीता ने अपने पति की बुरी आदतों के बारे में महाराज को बताया।
सब बातें सुनकर ब्राह्मण बोले-देखो बेटी! हर इंसान को अपने कर्मों के अनुसार फल भोगने पड़ते हैं, इसीलिए तू चिंता न कर। तेरे सुख के दिन फिर से लौटेंगें। तू तो माँ लक्ष्मी की भक्त है, वे अपने भक्तों पर हमेशा ममता रखती हैं तथा उनके दुःखों का नाश करती हैं। तू धैर्य रखकर अपने मन को शुद्ध और आत्मा को पवित्र कर माँ वैभव लक्ष्मी का व्रत कर। इस व्रत को करने से तेरे सभी मनोरथ सिद्ध होंगे। तेरे सभी संकट दूर होंगे।
गीता ने कहा- हे महाराज ! मैं माँ लक्ष्मी की पूजा तो बचपन से कर रही हूँ परन्तु व्रत की विधि मुझे नहीं पता।
ब्राह्मण बोले-हे पुत्री ! माँ लक्ष्मी का व्रत बहुत ही आसान है, इसे वैभव लक्ष्मी व्रत कहा जाता है। जो मानव इस व्रत को सच्चे मन से करता है उसकी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। उसे समस्त सुख एवं यश प्राप्त होता है इस व्रत को विधिपूर्वक करने पर ही इसका फल प्राप्त होता है विधि रहित व्रत फलदायक नहीं होता।
हे पुत्री! कई पाखंड़ी कहते है कि सोने के गहनों की हल्दी कुमकुम से पूजा करो, बस हो गया व्रत। परन्तु ऐसा नहीं है। कोई भी व्रत जब तक विधि पूर्वक नहीं किया जाता उसका फल नहीं मिलता। वैसे घर में यदि सोना, गहनें हो तो उनकी शास्त्रीय विधि से पूजा, उपासना करनी चाहिए।
माँ लक्ष्मी का व्रत शुक्रवार को किया जाता है। प्रातः काल जल्दी उठकर स्नान करें। हर समय मुँह से ‘जय माँ लक्ष्मी’ ‘जय’ माँ लक्ष्मी का उच्चारण करते रहें। व्रत आरम्भ करते समय भी यह संकल्प लें कि ‘मैं इस व्रत को 7, 11, 21, 31, 51 अथवा 101 शुक्रवार तक करूंगी पारम्भ में थोड़ी अवधि का ही संकल्प लें यदि इस अवधि में मनोकामना पूर्ण न हो तो व्रतों की संख्या बड़ा देनी चाहिए।
किसी की चुगली नहीं करें। सांय काल पूर्व दिशा की ओर मुँह करके आसन पर बैठें और माँ लक्ष्मी की मूर्ति या चित्र किसी ऊँचे स्थान (लकड़ी की चौकी इत्यादि) पर रखकर उसके आगे चावलों की छोटी सी ढेरी लगाएं। एक खुली प्लेट में सोने अन्यथा चांदी के जेवर रखें चाँदी के जेवर नहीं हो तो रुपये रखें चावल की ढेरी पर एक मिट्टी का अथवा कांसे या ताँबे का कलश रखकर कलश पर इस प्लेट को रख दें तथा उसके पास ही ताम्रपत्र पर अंकित ‘श्री यंत्र’ को स्थापित करें।
वैसे तो माँ लक्ष्मी के अनेक रूप है परन्तु इन सबकी नींव “श्री यंत्र” है। अतः वैभव लक्ष्मी जी का पूजन करते वक्त सर्वप्रथम ‘श्री यंत्र’ और लक्ष्मी जी के विविध रूपों का सच्चे मन से दर्शन करें। यंत्र तथा कलश की स्थापना के पश्चात् जल, रोली, चंदन, फूलों से यंत्र, कलश तथा सोने, चाँदी का पूजन करना चाहिए।
अगरबत्ती जलाकर धूप देनी चाहिए तथा घी दीपक जलाए रखना चाहिए। इसके पश्चात् लक्ष्मी कथा का पाठ करना चाहिए। बताशे अथवा शक्कर तथा पांच प्रकार के फलों से (यदि हो तो) भोग लगाना चाहिए। आटे को घी में भूनकर तथा उसमें चीनी मिलाकर तैयार की गई पंजीरी का भोग भी लगाना चाहिए।
अंत में माँ लक्ष्मी की इस प्रकार अर्चना करनी चाहिए-हे माँ ! हे वैभव लक्ष्मी माँ ! तुम्हारे अनेक रूप हैं। आप ही सारे विश्व में सुख प्रदान करने वाली हैं। आप ही विष्णु पत्नी हैं। जहाँ आपका वास होता है वहाँ पर कभी भी दुःख नहीं आता। मैं आपका यथाशक्ति भक्ति-भाव से पूजन तथा व्रत कर रही/रहा हूँ। अब कृपा करके मेरी मनोकामना पूर्ण करें। मैं आपकी शरण में हूँ मुझ दीन पर दया करें दया करें, माँ। जय माँ लक्ष्मी ! जय माँ वैभव लक्ष्मी! अंत में दीपक द्वारा लक्ष्मी जी की आरती करनी चाहिए।
इसके पश्चात् घी, आटे और चीनी को भूनकर बनाया गया प्रसाद, जिसमें केलें भी काटे हों, माँ लक्ष्मी जी की आरती के पश्चात् प्रसाद के रूप में लोगों को बाटें। यह व्रत निरन्तर 7, 11 या 21 या 51 शुक्रवार करने का दृढ़ संकल्प माँ के सामने करें। सूर्यास्त होने के पश्चात् माँ की उपासना करके प्रसाद वितरण के पश्चात् आप स्वयं भी प्रसाद व भोजन ग्रहण करें।
तत्पश्चात् माँ के आगे रखे हुए गहनों व रुपयों को तिजोरी में रखें व कलश के पानी को तुलसी में डाल दें व चावल के दानों को पक्षियों को डालें। व्रत रखने वाले भक्त जन को यह जरूरी है कि वह व्रत कथा का पाठ करे व लोगों को भी कथा सुनाएँ। इस प्रकार विधिपूर्वक व्रत करने से व्रत का फल अवश्य प्राप्त होता है।
माँ लक्ष्मी उस मनुष्य का कल्याण अवश्य करती हैं। वह मानव सभी कष्टों से दूर होकर धन एवं सन्तान लाभ इत्यादि को प्राप्त करता है। स्त्री का सुहाग व कुमारी लड़की को मनभावन वर मिलता है।
जब व्रत सम्पूर्ण हो जाए अर्थात आखिरी व्रत के दिन शुक्रवार व्रत का शास्त्रीय विधि द्वारा उद्यापन करना चाहिए। आखिरी व्रत के दिन खीर या नैवेद्या बनाएं। पूजन विधि हर शुक्रवार की ही तरह करें। पूजन विधि के पश्चात् श्री फल को फोड़ें और कम से कम सात कुंवारी कन्याओं को कुमकुम का तिलक लगा करके भोजन इत्यादि करावें।
फिर उन्हें एक-एक ‘श्री वैभव लक्ष्मी व्रत कथा’ की पुस्तक उपहार में दें और साथ ही सभी रिश्तेदारों व पड़ोसिया को भी एक-एक पुस्तक उपहार में दें व उनसे भी माँ वैभव लक्ष्मी व्रत करने को कहें। कम से कम 7 व अपनी श्रद्धानुसार (सामर्थ्यानुसार) जितनी पुस्तक हों भेंट में दें। इस व्रत में ‘वैभव लक्ष्मी व्रत कथा’ की पुस्तक के दान का बड़ा ही महत्व है। इस पुस्तक के पढ़ने से दूसरों को भी व्रत करने की प्रेरणा मिलती है. उसका पुण्य भी पुस्तक बांटने वाले को मिलता है।
फिर लक्ष्मी जी की प्रतिमा एवं श्री यंत्र के आगे हाथ जोड़कर प्रणाम करें और तरह-तरह से स्तुति करते हुए कहें हे माँ लक्ष्मी ! आपकी कृपा से संतान हीन को संतान, धनहीन को धन एवं भाग्य जिससे विमुख हो गया हो उसे भारत विधाता बना देती हो आपकी ही कृपा से मैंने आपका ये व्रत पूर्ण करा है अत: हे माँ! मेरी सभी चिन्ताओं को दूर करो। मेरी सभी कामनाएं पूर्ण करें। इस तरह माँ लक्ष्मी के विविध रूपों की स्तुति करें।
ब्राह्मण बोले- बस बेटी यही हर प्राणी कल्याण का भार्ग है तुम भी इस व्रत को करो जिससे तुम्हारे सभी कष्ट दूर हो जाएंगे। इतना कहकर पुजारी जी चले गए।
गीता का रोम-रोम खिल उठा। उसने भी पुजारी जी के कहे अनुसार 21 शुक्रवार का व्रत रखने का मन में संकल्प किया। अगले दिन ही शुक्रवार था ।
दूसरे दिन गीता सुबह स्नान करके स्वच्छ वस्त्र पहनकर श्रद्धा भाव से मन ही मन ‘जय माँ लक्ष्मी’ का जप करने लगी। साथ ही उसने माँ का व्रत रखा। सारा दिन किसी की चुगली नहीं की। शाम हुई तो हाथ पैर धोकर गीता पूर्व दिशा में मुख करके बैठ गई। इस बुरे समय में गीता के पास रुपये पैसे कुछ न थे बस उसके गले में भारतीय स्त्री के सुहाग का प्रतीक मंगलसूत्र ही था जिसमें सोने का एक टुकड़ा था। गीता ने वह अपने गले से उतारकर उसे धोकर एक प्लेट में रखा। सामने चौकी पर रूमाल रखकर मुट्ठी भर चावल का ढेर रखा। उसके ऊपर वह प्लेट रख दी। फिर ब्राह्मण के कहे अनुसार हाथ जोड़कर लक्ष्मी स्तवन का पाठ किया व दीप, धूप प्रज्वलित किए। घर में थोड़ी सी शक्कर थी वह प्रसाद के रूप में रखकर वैभव लक्ष्मी का व्रत किया। पूजन के उपरान्त पति चरण छूकर उसे प्रसाद खिलाया तो उसके पति ने उसे प्यार से गले लगाया और बोला।
गीता, तुम तो आज सचमुच की देवी लग रही हो। मैं ही पापियों की संगत में घड़कर पापी हो गया था। परन्तु आज मेरी आँखें खुल गई हैं। मुझे आज अपनी भूल का एहसास हो रहा है। इसके पश्चात् उसने भी माँ लक्ष्मी के सामने दण्डवत करते. हुए क्षमा मांगी व प्रतिज्ञा की कि आज से कभी भी बुरी वस्तुओं व बुरे लोगों की संगत में नहीं बैठूंगा।
गीता बोली- मेरे स्वामी ! माँ लक्ष्मी की कृपा से सुधर गए। आज मैं कितनी प्रसन्न हूँ। माँ ने मेरा उजड़ा घर फिर बसा दिया। इसके पश्चात् गीता ने पूरी श्रद्धा भक्ति से माँ लक्ष्मी के इक्कीस शुक्रवार करें और उद्यापन कर सात कुंवारी कन्याओं को भोजन कराया और 51 पुस्तकें ‘श्री वैभव लक्ष्मी व्रत की कुमकुम का टीका लगाकर सौभाग्यवती स्त्रियों कन्याओं को दीं। फिर माँ के ‘धनलक्ष्मी स्वरूप’ की तस्वीर को हाथ जोड़कर प्रेमभाव से प्रार्थना की हे माँ ! मैंने आपका वैभव लक्ष्मी व्रत करने की मन्नत मांगी थी वह आज पूर्ण हुआ। हे माँ ! मेरी समस्त विपत्तियों को हर कर मरा सम्पूर्ण अभिलाषाओं को पूर्ण करो। सबका कल्याण करो। सबके हृदय में धर्म की जोत जलाओ। हे माँ ! आपकी महिमा अपरंपार है। इस प्रकार माँ की अनेक प्रकार से स्तुति करके मा को दण्डवत किया। आए
इस तरह श्रद्धा पूर्वक शास्त्रीय विधि से व्रत करने से उसका पति गोविन्द पूर्ण रूप से बुरी संगत से छूटकर नेक रास्ते पर चलने लगा। कड़ी मेहनत करके वह गीता के सभी गहने छुड़ाकर घर ले आया और सुख से घर में रहने लगा। गोविंद ने भी वैभव लक्ष्मी माँ के इक्कीस व्रत करने का संकल्प किया और पूरे इक्कीस व्रत करे। उनके घर में सुख-समृद्धि का वास गया। उन्हें देखकर गली मौहल्ले वालों ने भी ‘श्री वैभव लक्ष्मी का व्रत किया।
हे माँ वैभव लक्ष्मी ! जैसे आप गीता पर प्रसन्न हुई उस तरह प्रत्येक ‘श्री वैभव लक्ष्मी माँ का व्रत करने वालों पर प्रसन्न हों। सबको सुख-शांति समृद्धि दें। जय माँ लक्ष्मी की।