Vastu Shastra: वास्तु शास्त्र में दिशा और ग्रहों का संबंध
Vastu & Directions: हिन्दू मान्यता में भवन निर्माण का कार्य भी एक धार्मिक कार्य के रूप में माना जाता है। भूमि पूजन से लेकर गृहे प्रवेश तक के हर कार्य को धार्मिक भावनाओं से जोड़ा गया है। महर्षि नारद जी ने स्वयं कहा है कि जो वास्तु का पूजन करता है, वह निरोग, पुत्र, धन-धान्य आदि से परिपूर्ण होता है। पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि, वायु इन पांच तत्वों संतुलित रखना प्राकृतिक नियम है और वास्तु अनुकूल भवन बनाने का मुख्य उद्देश्य भी यही होता है।
वास्तु का ज्योतिष से गहरा रिश्ता है। ज्योतिष शास्त्र का मानना है कि मनुष्य के जीवन पर नवग्रहों का पूरा प्रभाव पड़ता है। वास्तु शास्त्र में इन ग्रहों की स्थितियों का पूरा ध्यान रखा जाता है।
वास्तु के सिद्धांतों के अनुसार भवन का निर्माण कराकर आप उत्तरी ध्रुव से चलने वाली चुम्बकीय ऊर्जा, सूर्य के प्रकाश में मोजूद अल्ट्रा वायलेट रेज (ultraviolet Ray) और इन्फ्रारेड रेस (infrared Rays), गुरुत्वाकर्षण शक्ति (Gravity Fourse) तथा अनेक अदृश्य ब्रह्मांडीय तत्व जो मनुष्य को प्रभावित करते है के शुभ परिणाम प्राप्त कर सकते है और अनिष्टकारी प्रभावों से अपनी रक्षा भी कर सकते है।
वास्तु शास्त्र में दिशा, ग्रह एवं देवता का संबंध (Direction, planet and deity in Vastu Shastra)
वास्तु शास्त्र में दिशाओं का सबसे अधिक महत्व है। सम्पूर्ण वास्तु शास्त्र दिशाओं पर ही निर्भर होता है, क्योंकि वास्तु की दृष्टि में हर दिशा का अपना एक अलग ही महत्व है।
पूर्व दिशा: पूर्व की दिशा सूर्य प्रधान होती है। पूर्व सूर्य के उगने की दिशा है। सूर्य पूर्व दिशा के स्वामी है। यही वजह है कि पूर्व दिशा ज्ञान, प्रकाश, आध्यात्म की प्राप्ति में व्यक्ति की मदद करती है। पूर्व दिशा पिता का स्थान भी होता है। पूर्व दिशा बंद, दबी, ढकी होने पर गृहस्वामी कष्टों से घिर जाता है। वास्तु शास्त्र में इन्ही बातो को दृष्टि में रख कर पूर्व दिशा को खुला छोड़ने की सलाह दी गयी है।
पश्चिम दिशा:– यह वरुण का स्थान है. सफलता, यश और भव्यता का आधार यह दिशा है. इस दिशा सम्बंधित पूजा पश्चिम की तरफ मुंह करके भी की जाती है.के ग्रह शनि है. लक्ष्मी से इस प्रकार सभी दिशाओं के स्वामी अलग अलग ग्रह होते है और उनका जीवन में अलग अलग प्रभाव उनकी स्थिति के अनुसार मनुष्य के जीवन में पडता रहता है.
उत्तर- दिशा:- यह दिशा मातृ स्थान और कुबेर की दिशा है. इस दिशा का स्वामी बुध ग्रह है. उत्तर में खाली स्थान ना होने पर माता को कष्ट आने की संभावना बढ़ जाती है।
दक्षिण दिशा:- दक्षिण दिशा यम की दिशा मानी गयी है. यम बुराइयों का नाश करने वाला देव है और पापों से छुटकारा दिलाता है. पितर इसी दिशा में वास करते है, यह दिशा सुख समृद्धि और अन्न का स्रोत है। यह दिशा दूषित होने पर गृहस्वामी का विकास रुक जाता है. दक्षिण दिशा का ग्रह मंगल है और मंगल एक बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रह है।
दक्षिण-पूर्व की दिशा :- इस दिशा के अधिपति अग्नि देवता है. अग्निदेव व्यक्ति के व्यक्तित्व को तेजस्वी, सुंदर और आकर्षक बनाते है। जीवन में सभी सुख प्रदान करते है. जीवन में खुशी और स्वास्थ्य के लिए इस दिशा में ही आग, भोजन पकाने तथा भोजन से सम्बंधित कार्य करना चाहिए। इस दिशा के अधिष्ठाता शुक्र ग्रह है।
उत्तर-पूर्व दिशा: यह सोम और शिव का स्थान होता है. यह दिशा धन, स्वास्थ्य औए एश्वर्य देने वाली है। यह दिशा वंश में वृद्धि कर उसे स्थायित्व प्रदान करती है। यह दिशा पुरुष व पुत्र संतान को भी उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करती है और धन प्राप्ति का स्रोत है. इसकी पवित्रता का हमेशा ध्यान रखना चाहिए।
दक्षिण-पश्चिम दिशा:- यह दिशा मृत्यु की है। यहां पिशाच का वास होता है। इस दिशा का ग्रह राहू है। इस दिशा में दोष होने पर परिवार में असमय मौत की आशंका बनी रहती है।
उत्तर-पश्चिम दिशा:- यह वायुदेव की दिशा है। वायुदेव शक्ति, प्राण और स्वास्थ्य प्रदान करते है। यह दिशा मित्रता और शत्रुता का आधार है। इस दिशा का स्वामी ग्रह चंद्रमा है।
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