Mahabharat: यमराज को क्यों लेना पड़ा था विदुर रूप में जन्म
Vidura Pauranik Katha: हम मनुष्य से ही नहीं बल्कि देवी-देवताओं से भी अनजाने में गलती हो जाती हैं, जिसकी सजा भी उन्हें मिलती हैं। ऐसी ही एक लगती यमराज से भी हुई जिनकी वजह से उन्हें पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ा था। आजके इस लेख में हम आपको बताने जा रहे हैं, कि यमराज को विदुर के रूप में क्यों अवतार लेना पड़ा था..
एक समय की बात है, माण्डव्य नाम के एक यशस्वी ब्राह्मण थे। वे बड़े धैर्यवान, धर्मज्ञ, तपस्वी एवं सत्यनिष्ठ थे। वे अपने आश्रम के दरवाजे पर वृक्ष के नीचे हाथ ऊपर उठाकर तपस्या करते थे। उन्होंने मौन का नियम ले रखा था। बहुत दिनों के बाद एक दिन कुछ लुटेरे लूट का माल लेकर वहाँ आये। बहुत से सिपाही उनका पीछा कर रहे थे, इसलिये उन्होंने माण्डव्य के आश्रम में लूट का सारा धन रख दिया और वहीं छिप गये।
सिपाहियों ने आकर माण्डव्य से पूछा कि ‘लुटेरे किधर से भागे? शीघ्र बतलाइये, हम उनका पीछा करें। ‘माण्डव्य ने उनका कुछ भी उत्तर नहीं दिया। राजकर्मचारियों ने उनके आश्रम की तलाशी ली, उसमें धन और चोर दोनों मिल गये।
सिपाहियों ने माण्डव्य मुनि और लुटेरों को पकड़कर राजा के सामने उपस्थित किया। राजा ने विचार करके सबको शूली पर चढ़ाने का दण्ड दिया। माण्डव्य मुनि शूली पर चढ़ा दिये गये। बहुत दिन बीत जाने पर भी बिना कुछ खाये पिये वे शूली पर बैठे रहे, उनकी मृत्यु नहीं हुई। उन्होंने अपने प्राण छोड़े नहीं, वहीं बहुत से ऋषियों को निमन्त्रित किया।
ऋषियों ने रात्रि के समय पक्षियों के रूप में आकर दुःख प्रकट किया और पूछा कि आपने क्या अपराध किया था। माण्डव्यने कहा, ‘मैं किसे दोषी बनाऊँ? यह मेरे ही अपराध का फल है। ‘पहरेदारों ने देखा कि ऋषि को शूली पर चढ़ाये बहुत दिन हो गये, परन्तु ये मरे नहीं। उन्होंने जाकर अपने राजा से निवेदन किया।
राजा ने माण्डव्य मुनि के पास आकर प्रार्थना की कि ‘मैंने अज्ञानवश आपका बड़ा अपराध किया। आप मुझे क्षमा कीजिये, मुझ पर प्रसन्न होइये। ‘माण्डव्य ने राजा पर कृपा की, उन्हें क्षमा कर दिया। वे शूली पर से उतारे गये। जब बहुत उपाय करने पर भी शूल उनके शरीर से नहीं निकल सका, तब वह काट दिया गया। गड़े हुए शूल के साथ ही उन्होंने तपस्या की और दुर्लभ लोक प्राप्त किये। तबसे उनका नाम “अणीमाण्डव्य” पड़ गया।
महर्षि अणीमाण्डव्य ने धर्मराज की सभा में जाकर पूछा कि ‘मैंने अनजान में ऐसा कौन सा पाप किया था, जिसका यह फल मिला? जल्दी बतलाओ, नहीं तो मेरी तपस्या का बल देखो। ‘धर्मराज ने कहा, ‘आपने एक छोटे से पतंगे की पूँछ में सींक गड़ा दी थी। उसी का यह फल है। जैसे थोड़े से दान का अनेक गुना फल मिलता है, वैसे ही थोड़े से अधर्म का भी कई गुना फल मिलता है।’
माण्डव्य ने पूछा कि ‘ऐसा मैने कब किया था?’ धर्मराज ने कहा, ‘बचपन में! इस पर माण्डव्य बोले, ‘बालक बारह वर्ष की अवस्था तक जो कुछ करता है, उससे उसे अधर्म नहीं होता; क्योंकि उसे धर्म अधर्म का ज्ञान नहीं रहता। तुमने छोटे अपराध का बड़ा दण्ड दिया है। तुम्हें मालूम होना चाहिये कि समस्त प्राणियों के वध की अपेक्षा ब्राह्मण का वध बड़ा है। इसलिये तुम्हें शूद्रयोनि में जन्म लेकर मनुष्य बनना पड़ेगा। आज मैं संसार में कर्मफल की मर्यादा स्थापित करता हूँ। चौदह वर्ष की अवस्था तक किये कर्म का पाप नहीं लगेगा, उसके बाद किये कर्म का फल अवश्य मिलेगा।’
इसी अपराध के कारण माण्डव्य ने शाप दिया और धर्मराज शूद्रयोनि में विदुर के रूप में उत्पन्न हुए। वे धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र में बड़े निपुण थे। क्रोध और लोभ तो उन्हें छू तक नहीं पाया था। वे बड़े दूरदर्शी, शान्ति के पक्षपाती और समस्त कुरुवंश के हितैषी थे।दक्षिण भारत के मंदिरों में मांडव्य ऋषि की इस कथा को संभवतः पत्थर तक पर उकेरा गया है। जो इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि भारतीय संस्कृति की कोई कथा काल्पनिक नही है, बल्कि यह हजारों लाखों वर्ष प्राचीन गौरवशाली इतिहास है।