कण्व ऋषि (Kanv Rishi)
कण्व ऋषि वैदिक काल के प्रख्यात ऋषि थे। इनकी गणना सप्तऋषियों में होती है। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का लालन पालन हुआ था।
कण्व ऋषि परिचय
नाम | महर्षि कण्व |
पिता | घोर ऋषि |
सम्बन्ध | सप्तऋषि |
अन्य जानकारी | इन्हीं ने विश्वामित्र की पुत्री शकुंतला का पालन किया था। |
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कण्व ऋषि जन्म कथा, जीवनी (Kanv Rishi Birth Story and Biography in Hindi)
कण्व वैदिक काल के ऋषि थे। ऋग्वेद की विनियोग परंपरा तथा आर्षानुक्रमणी से ज्ञात होता है कि ब्रह्मा से अंगिरा, अंगिरा से घोर, घोर से कण्व और कण्व से सौभरि हुए।
माना जाता है इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया था। ऋग्वेद के आठवें मंडल के अधिकांश मन्त्र महर्षि कण्व तथा उनके वंशजों तथा गोत्रजों द्वारा दृष्ट हैं। इनमें लौकिक ज्ञान-विज्ञान तथा अनिष्ट-निवारण सम्बन्धी उपयोगी मन्त्र हैं।
ऋग्वेद के अतिरिक्त शुक्ल यजुर्वेद की ‘माध्यन्दिन’ तथा ‘काण्व’, इन दो शाखाओं में से द्वितीय ‘काण्वसंहिता’ के वक्ता भी महर्षि कण्व ही हैं। उन्हीं के नाम से इस संहिता का नाम ‘काण्वसंहिता’ हो गया।महर्षि कण्व ने एक स्मृति की भी रचना की है, जो ‘कण्वस्मृति’ के नाम से विख्यात है।
इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था। उन्हीं के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष हुआ।
ऋषि कण्व का आश्रम
सोनभद्र में जिला मुख्यालय से आठ किलो मीटर की दूरी पर कैमूर शृंखला के शीर्ष स्थल पर स्थित कण्व ऋषि की तपस्थली है जो कंडाकोट नाम से जानी जाती है।
महाकवि कालिदास द्वारा रचित “अभिज्ञान शाकुन्तलम” में कण्वाश्रम का जिस तरह से जिक्र मिलता है वे स्थल आज भी वैसे ही देखे जा सकते हैं।
शकुंतला के धर्म पिता
एक बार ऋषि विश्वामित्र की कठोर तपस्या से स्वर्ग के राजा इंद्र अत्यंत विचलित हो गए थे। उनकी तपस्या भंग करने के लिए इंद्र ने स्वर्ग की अप्रतिम सुन्दरी, अप्सरा मेनका को धरती पर भेजा।
मेनका विश्वामित्र की तपस्या भंग कर उन्हें अपने मोहपाश में बांधने में सफल हो गयी। विश्वामित्र ने मेनका से विवाह कर लिया। मेनका से उन्हें एक सुन्दर कन्या की भी प्राप्त हुई जिसका नाम ‘शकुंतला‘ रखा गया।
जब शकुंतला छोटी ही थी, तभी एक दिन मेनका मेनका बालिका शकुंतला को ऋषि विश्वामित्र के आश्रम के समीप स्थित ऋषि कण्व के आश्रम में छोड़ कर स्वर्ग वापिस चली गयी।
मेनका के छोड़कर चले जाने पर शकुंतला का लालन-पालन ऋषि कण्व ने किया था इसलिए वे उसके धर्मपिता कहलाये। शकुंतला का आगे चलकर सम्राट ‘दुष्यंत’ से प्रेम विवाह हुआ। जिनसे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। यही पुत्र राजा भरत थे।
देवी शकुन्तला के धर्मपिता के रूप में महर्षि कण्व की अत्यन्त प्रसिद्धि है। महर्षि विश्वामित्र की अप्सरा मेनका के गर्भ से उत्पन्न कन्या ‘शकुंतला’ का पालन कण्व ऋषि ने ही किया था।
महर्षि कण्व का शकुंतला को उपदेश
महाकवि कालिदास ने अपने प्रख्यात महाकाव्य ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ में महर्षि कण्व के तपोवन, उनके आश्रम-प्रदेश तथा उनका, जो धर्माचारपरायण उज्ज्वल एवं उदात्त चरित प्रस्तुत किया है।
कण्व के मुख से एक स्त्री के लिए विवाह के समय जो शिक्षा निकली है, वह उत्तम गृहिणी का आदर्श बन गयी। ऋषि कण्व के उपदेश को कालिदासजी ने एक श्लोक के द्वारा प्रस्तुत किया है। महर्षि कण्व शकुन्तला की विदाई के समय कहते हैं-
शश्रूषस्व गुरून् कुरु प्रियसखीवृत्तिं सपत्नीजने,
भर्तुर्विप्रकृताSपि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गम: |
भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भाग्येष्वनुत्सेकिनी,
यान्त्येवं गृहिणीपदं युवतयो वामा: कुलस्याधय: ||
अर्थात – ससुराल में जाकर तुम इन बातों का पालन करना। जो पत्नियाँ इन बातों का पालन करती हैं, वे ‘गृहिणी’ सम्मानजनक स्थान प्राप्त करती हैं और जो इनका पालन नहीं करतीं वे उस घर में क्लेश या मानसिक रोग रूप सिद्ध होती हैं। वे बातें हैं :-।
1) गुरून् शश्रूषस्व – ससुराल में सास-ससुर आदि बड़ों की सेवाकरना।
2) सपत्नीजने प्रियसखीवृत्तिं कुरु – यदि पति की अन्य पत्नियाँ हों तो उनके साथ सहेली के समान मित्रता का व्यव्हार करना। (उस समय राजा कई विवाह करते थे, इसलिए यह बात कही गयी है)
3) भर्तुर्विप्रकृता अपि रोषणतया प्रतीपं मा स्म गम: – पति के द्वारा कभी उपेक्षा किये जाने के कारण क्रोध में आकर उसके प्रतिकूल (उल्टा बोलना) आचरण मत करना। ऐसी स्थिति में सहनशक्ति का प्रदर्शन करके, पति के शांत होने पर उन्हें समझाना।
4) परिजने भूयिष्ठं दक्षिणा भव – सेवक और सेविकाओं के प्रति उदारता और दया का भाव रखना ।
5) भाग्येषु अनुत्सेकिनी – सौभाग्य में अथवा धन-ऐश्वर्य की अधिकता में अभिमान ऐसी मत करना।
ऐसी आचरण से युक्त पत्नी पति को प्रिय और अन्य सभी के सम्मान की पात्र बनती है।