ऋषि अत्रि (Rishi Atri)
महर्षि अत्री एक प्रख्यात वैदिक ऋषि थे। इनकी गणना सप्तऋषि (सात महान वैदिक ऋषियों) में होती है। यह ब्रह्मा जी के 7 मानस पुत्रों में से एक है।
ऋषि अत्रि सम्पुर्ण जानकारी
नाम | अत्रि |
पिता | ब्रह्मा |
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पत्नी | अनुसूया |
बच्चे | दुर्वासा, चंद्र, दत्तत्रेय |
संबंध | सप्तऋषि |
अन्य जानकारी | महर्षि अत्रि ब्रह्मा जी के मानस-पुत्र हैं। |
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महर्षि अत्रि जन्म कथा (Maharshi Atri Birth Story in Hindi)
पुराणों में इनके आविर्भाव का तथा उदात्त चरित्र का बड़ा ही सुन्दर वर्णन हुआ है। पौराणिक मान्यता अनुसार महर्षि अत्रि ब्रह्मा जी के मानस-पुत्र हैं और उनके चक्षु भाग से इनका प्रादुर्भाव हुआ था।
ब्रह्मा जी के सात मानस पुत्र उत्पन्न हुए थे, उसमें ऋषि पुलस्त्य, ऋषि पुलह, ऋषि वशिष्ठ, ऋषि कौशिक, ऋषि मारिचि, ऋषि क्रतु, ऋषि नारद है।
अत्रि का क्या अर्थ है?
महर्षि अत्रि ‘अ+त्रि’ अर्थात् तीनों गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) से अतीत है गुणातीत हैं।
महर्षि अत्रि की पत्नी थी अनुसूया
महर्षि अत्रि का विवाह ऋषि कर्दम और देवहूति की पुत्री अनुसूया से हुआ था। देवी अनुसूया का चरित्र सौभाग्यशाली स्त्रियों के लिए सदा प्रेरणादायक रहा है।
महर्षि अत्रि जहाँ ज्ञान, तपस्या, सदाचार, भक्ति एवं मन्त्रशक्ति के मूर्तिमान स्वरूप हैं; वहीं देवी अनुसूया पतिव्रता धर्म एवं शील की मूर्तिमती विग्रह हैं।
देवी अनुसूया ने अपने पतिव्रत के बल त्रिदेवी (पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती) के घमंड को चूर किया, शैव्या ब्राह्माणी के मृत पति को जीवित कराया तथा बाधित सूर्य को उदित कराकर संसार का कल्याण किया।
जब राम वनवास यात्रा पर निकले थे तब माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत धर्म का उपदेश दिया था। अत्रि पत्नी अनुसूया के तपोबल से ही भागीरथी गंगा की एक पवित्र धारा चित्रकूट में प्रविष्ट हुई और ‘मंदाकिनी’ नाम से प्रसिद्ध हुई।
भगवान दत्तात्रेय के पिता थे ऋषि अत्रि
पौराणिक कथा अनुसार महर्षि अत्रि और देवी अनुसूया ने पुत्र प्राप्ति के लिए ऋक्ष पर्वत पर घोर तप किया था। जिस कारण इन्हें त्रिमूर्तियों की प्राप्ति हुई। जिनसे त्रिदेवों के अशं रूप में दत्तात्रेय (विष्णु) दुर्वासा (शिव) और सोम (ब्रह्मा) उत्पन्न हुए।
इस तथ्य पर एक कथा आधारित है जो इस प्रकार है ऋषि अत्री और माता अनुसूइया अपने दाम्पत्य जीवन को बहुत सहज भाव के साथ व्यतीत कर रहे थे. देवी अनुसूइया जी की पतिव्रतता के आगे सभी के नतमस्तक हुआ करते थे. इनके जीवन को देखकर देवता भी प्रसन्न होते थे
जब एक बार त्रिदेवी (लक्ष्मी, पार्वती और सरस्वती) अत्रि की पत्नि अनुसूइया के दिव्य पतिव्रत के बारे में ज्ञात होता है तो वह उनकी परीक्षा लेने का विचार करती हैं।इसके लिए तीनों देवियां अपने पतियों (विष्णु, शंकर व ब्रह्मा) को अनुसूइया के पतिव्रत की परीक्षा लेने को कहती हैं।
विवश होकर त्रिदेव एक साधू रूप में ऋषि अत्रि के आश्रम जाते हैं। उस समय ऋषि अत्रि घर पर नही थे। त्रिदेव ने सन्यासी का रूप धारण करके देवी अनुसूया से भिक्षा मांगी। देवी अनुसूया ने अद्भुत तेज़ युक्त सन्यासी को प्रणाम कर भोजन के लिए पूछा।
सन्यासी ने कहा -देवी! – देवी! हम सिर्फ वर्ष में एक बार भोजन ग्रहण करते है। इसलिए हमारे भोजन करने के कुछ नियम है। हम तब ही भोजन ग्रहण करते है जब हमे यजमान निवस्त्र भोजन करवाएं।
त्रिदेव की ये बात सुनकर अनुसूइया जी धर्मसंकट में फँस जातीं हैं यदि भिक्षा न दी तो गलत होगा और देती हैं तो पतिव्रत धर्म टूट जाएगा। लेकिन फिर थोड़ा संभलकर उन्होंने कहा – ‘यदि आप बालक बन जाए तो मैं माता रूप में आपको भोजन करवा सकती हूं।’ इससे आपके नियम का भी पालन हो जाएगा और मेरा पतिव्रता धर्म भी नही टूटेगा।
अतः अनुसूया हाथ में जल लेकर संकल्प द्वारा वह तीनों देवों को शिशु रूप में परिवर्तित कर भोजन करवाने लगती है। इस प्रकार तीनों देवता ऋषी अत्रि के आश्रम में बालक रूप में रहने लगते हैं।
जब त्रिदेवियों को इस बात का बोध होता है तो त्रिदेवी उनसे आग्रह करती है कि वे उन्हें उनके पति सौंप दें। अनुसुया और उनके पति ने तीनों देवियों की बात मान ली और त्रिदेव अपने वास्तविक रूप में आ गए।
अपने स्वरूप में आने पर तीनों देव ऋषि अत्रि व माता अनुसूइया को वरदान देते हैं कि वह कालाम्तर में उनके घर पुत्र रूप में जन्म लेंग और त्रिदेवों के अशं रूप में दत्तात्रेय , दुर्वासा और सोम रुप में उत्पन्न हुए।
महर्षि अत्रि वैदिक मन्त्रद्रष्टा ऋषि माने गए हैं अनेक धार्मिक ग्रंथों में इनके आविर्भाव तथा चरित्र का सुन्दर वर्णन किया गया है. महर्षि अत्रि को ज्ञान, तपस्या, सदाचार, भक्ति एवं मन्त्रशक्ति के ज्ञाता रूप में व्यक्त किया जाता है। और पढ़ें: भगवान दत्तात्रेय का रहस्य
महर्षि अत्रि का योगदान
अत्री हिंदू परंपरा में सप्तऋषि (सात महान वैदिक ऋषियों) में से एक है, और सबसे अधिक ऋग्वेद में इसका उल्लेख है। इन्हें ‘प्रजापति’ भी कहा गया है।
अत्रि वैदिक मन्त्रद्रष्टा
महर्षि अत्रि वैदिक मन्त्रद्रष्टा ऋषि हैं। सम्पूर्ण ऋग्वेद दस मण्डलों में विभक्त है। प्रत्येक मण्डल के मन्त्रों के ऋषि अलग-अलग हैं। ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि हैं। इसीलिये इस मंडल को ‘आत्रेय मण्डल’ भी कहते है। इस मण्डल में कुल 87 सूक्त हैं।
इन्होंने अलर्क, प्रह्लाद आदि को शिक्षा दी थी। भीष्म जब शर-शैय्या पर पड़े थे, उस समय ये उनसे मिलने गये थे।
आयुर्वेद में योगदान
ऋर्षि अत्रि को चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपुर्ण उपलब्धी प्राप्त रही है उन्होंने आयुर्वेद में अनेक योगों का निर्माण किया।
देवताओं के चिकित्स्क अश्विनी कुमारों ने ऋषि अत्रि को वरदान दिया था। और नव यौवन प्राप्त कैसे किया जाए इस विधि का भी ज्ञान दिया था।
वेदों में वर्णित है कि ऋषि अत्रि को अश्विनीकुमारों की कृपा प्राप्त थी। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के अनुसार – ‘एक बार ऋषि अत्रि समाधिस्थ थे कि दैत्यों ने उनपर हमला कर दिया। समाधि में होने के कारण उन्हें अपने ऊपर हुए इस जानलेवा हमले का बोध नही हुआ। ऎसे में उस समय पर अश्विनी कुमार वहां उपस्थित होते हैं और ऋषि अत्रि को उन दैत्यों से बचाया था।’
ज्योतिष में ऋषि अत्रि का योगदान
महर्षि अत्रि ज्योतिष के इतिहास से जुडे 18 ऋषियों में से एक थे। ऋषि अत्रि द्वारा ज्योतिष में लिखे गये सिद्धांत आज भी ज्योतिष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। ऋषि अत्रि द्वारा ज्योतिष में शुभ मुहुर्त एवं पूजा अर्चना की विधियों का भी उल्लेख मिलता है।
सीता राम की अत्रि से भेंट
रामायण काल मे महर्षि अत्रि सदाचार का जीवन व्यतीत करते हुए चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे।
अयोध्या नरेश श्रीराम अपने वनवास काल मे भार्या सीता तथा बंधू लक्ष्मण के साथ अत्री ऋषी के आश्रम गए थे। जहां ऋषि अत्रि ने राम को दिवयास्त्र और कभी न खत्म होने वाले बाण दिए थे। और माता अनुसूइया देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश देती हैं. साथ ही उन्हें दिव्य वस्त्र एवं आभूषण प्रदान करती हैं। और पढ़ें: रामायण के पत्रों का सक्षिप्त परिचय
अत्रि गौत्र वाले कौन होते है?
अत्रि (अत्री, अत्रे, अत्रेय, आत्रे, आत्रेय आदि) गौत्र का उद्भव अत्रि ऋषि से हुआ था। इस गोत्र में जन्में व्यक्ति अत्री ऋषि के वंशज माने जाते है। यह गोत्र सबसे ज्यादा ब्राह्माण में पाया जाता है, इसके अलावा कुछ राजपूतो, जाटों सहित, यादवों में भी पाया जाता है।
श्री कृष्ण ऋषि अत्रि के वंशज
भगवान श्री कृष्ण ऋषि अत्रि के वंशज माने जाते है। पौराणिक मान्यता अनुसार महर्षि अत्रि के कई पीढीयों के बाद ही भगवान श्री कृ्ष्ण का जन्म हुआ था।