तारा देवी (महाविद्या-2)
माँ तारा देवी (Goddess Tara), माँ भगवती का ही एक रूप है। ये दस महाविद्याओं में से द्वितीय महाविद्या हैं। ‘तारा’ का अर्थ है, ‘तारने वाली’। हिन्दू धर्म के अलावा देवी तारा को तिब्बती बौद्ध द्वारा भी पूजा जाता है।
तारा देवी (महाविद्या-2)
नाम | तारा |
सम्बन्ध | महाविद्या, दुर्गा |
पति | शिव |
जन्म / जयंती | चैत्र-शुक्ल नवमी |
अस्त्र | तलवार, त्रिशूल |
मंत्र | ॐ ह्रीं स्त्रीं हूं फट् । |
सम्बन्धित लेख | 1- काली, 2- तारा, 3- त्रिपुर, 4- भुवनेश्वरी 5- छिन्नमस्ता, 6-भैरवी, 7-धूमावती, 8- बगलामुखी, 9- मातंगी. |
तारा देवी परिचय
जब भगवती काली ने नीला रूप ग्रहण किया तो वह तारा कहलाई। वचनान्तर से तारा नाम का रहस्य यह भी है कि ये सर्वदा मोक्ष देनेवाली, तारने वाली हैं, इसलिये ‘तारा’ है।
यह देवी वाक्य सिद्धि प्रदान करती है, इसलिये इन्हें ‘नील सरस्वती’ भी कहते हैं। यह शीघ्र प्रभावी है और भयंकर विपत्तियों से भक्तों की रक्षा करती हैं, इसलिये उग्रतारा हैं।
‘तारा’ दूसरी महाविद्या के रूप में साधना की जाती है। प्रथम महाविद्या महाकाली का आधिपत्य रात बारह बजे से सूर्योदय तक रहता है। इसके बाद तारा साम्राज्य होता है। तारा महाविद्या का रहस्य बोध कराने वाली हिरण्यगर्भ विद्या है।
शत्रुनाश, वाक्-शक्तिकी प्राप्ति तथा भोग मोक्ष की प्राप्तिके लिये तारा अथवा उग्रतारा की साधना की जाती है। यह भी मान्यता है कि हयग्रीव का वध करने के लिये देवी ने नीला विग्रह ग्रहण किया था।
माता का स्वरूप
भगवती तारा के तीन स्वरूप हैं:- तारा, एकजटा और नील सरस्वती। बृहन्नील तन्त्रादि ग्रन्थों में भगवती तारा के स्वरूपको विशेष चर्चा है। हयग्रीव का वध करनेके लिये इन्हें नील-विग्रह प्राप्त हुआ था।
भगवती तारा नील वर्ण वाली, नीलकमलों के समान तीन नेत्रों वाली तथा हार्थो में कैंची, कपाल, कमल और खड्ग धारण करनेवाली हैं। ये व्याधचर्म से विभूषिता तथा कण्ठ में मुण्डमाला धारण करने वाली हैं।
तारा का प्रादुर्भाव
तारा का प्रादुर्भाव मेरु-पर्वंत के पश्चिम भाग में ‘चोलना’ नाम की नदी के या चोलत सरोवर के तटपर हुआ था, जैसा कि स्वतन्त्रतन्त्र में वर्णित है-
मेरोः पश्चिमकूले नु चोत्रताख्यो हृदो महान्।
तत्र जज्ञे स्वयं तारा देवी नील सरस्वती ॥
‘महाकाल-संहिता के कामकला खण्ड में तारा-रहस्य वर्णित है, जिसमें तारा रात्रि में तारा की उपासना का विशेष महत्त्व है। चैत्र-शुक्ल नवमी की रात्रि ‘तारारात्रि’ कहलाती है।
गुरु वशिष्ठ ने की थी तारा की साधना
ऐसा कहा जाता है कि सर्वप्रथम महर्षि वसिष्ठ ने तारा की आराधना की थी इसलिये तारा को ‘वसिष्ठाराधिता’ तारा भी कहा जाता है। वसिष्ठ ने पहले भगवती ताराकी आराधना वैदिक रीति से करनी प्रारम्भ की, जो सफल न हो सकी।
उन्हें अदृश्यशक्तिसे संकेत मिला कि वे तान्त्रिक पद्धति के द्वारा जिसे ‘चिनाचारा’ कहा जाता है, उपासना करें। जब वसिष्ठने तान्त्रिक पद्धतिका आश्रय लिया, तब उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई।
उग्र होने के कारण इन्हें उग्रतारा भी कहा जाता है। भयानक से भयानक संकटादि में भी अपने साधक को यह देवी सुरक्षित रखती है अत: इन्हें उग्रतारिणी भी कहते हैं। कालिका को भी उग्रतारा कहा जाता है। इनका उग्रचण्डा तथा उग्रतारा स्वरूप देवी का ही स्वरूप है।
माँ तारा मंत्र, साधना और सिद्धि
भगवती तारा की उपासना मुख्यरूप से तन्त्रोक्त पद्धति से होती है, जिसे ‘आगमोक्त पद्धति’ भी कहते हैं। इनकी उपासनासे सामान्य व्यक्ति भी बृहस्पति के समान विद्वान् हो है।
भगवती तारा के तीन रूप हैं- तारा, एकजटा और नीलसरस्वती। तीनों रूपों के रहस्य, कार्य-कलाप तथा ध्यान परस्पर भिन्न हैं, किन्तु भिन्न होते हुए सबकी शक्ति समान और एक है।
भगवती तारा के तीन मंत्र दिए जा रहे है। साधक अपनी सुविधा अनुसार किसी भी एक मंत्र का जाप कर सकता है।
१. ह्रीं स्त्रीं हूं फट्।
२. श्रीं ह्रीं स्त्रीं हूं फट्।
३. ॐ ह्रीं स्त्रीं हूं फट् ।
माँ तारा शिव के समान ही शीघ्र प्रसन्न हो जाती है। तांत्रिकों की देवी तारा माता को हिन्दू और बौद्ध दोनों ही धर्मों में पूजा जाता है। तिब्बती बौद्ध धर्म के लिए भी हिन्दू धर्म की देवी ‘तारा’ का काफी महत्व है।
तारा जयंती (तारा रात्रि)
तारा जयंती चैत्र मास की नवमी तिथि को मनाई जाती है, इस दिन को ‘तारा रात्रि’ भी कहते है। चैत्र मास की नवमी तिथि और शुक्ल पक्ष के दिन तारा रूपी देवी की साधना करना तंत्र साधकों के लिए सर्व सिद्धिकारक माना गया है।
यदि सच्चे मन से चैत्र नवरात्रि में माता तारा की पूजा करे, तो साधारण गृहस्थ का जीवन भी पूर्णतः बदल सकता हैं।
माँ तारा के प्रमुख मंदिर (Maa tara Temple Famous Temple)
तारापीठ, बीरभूम पश्चिम बंगाल
तारापीठ , भारत के पश्चिम बंगाल राज्य के बीरभूम ज़िले में स्थित हैैं। यह एक शक्तिपीठ है, यहां देवी सती की तीसरी आंख गिरी थी। तारापीठ में देवी सती के नेत्र गिरे थे, इसलिए इस स्थान को ‘नयन तारा’ भी कहा जाता है।
प्राचीन काल में महर्षि वशिष्ठ ने इस स्थान पर देवी तारा की उपासना करके सिद्धियां प्राप्त की थीं। इस मंदिर में वामाखेपा नामक एक साधक ने देवी तारा की साधना करके उनसे सिद्धियां हासिल की थी।
महिषी उग्र तारा, बिहार
बिहार के सहरसा जिले में प्रसिद्ध ‘महिषी’ ग्राम में उग्रतारा का सिद्ध पीठ विद्यमान है। वहाँ तारा, एकजटा तथा नीलसरस्वती की तीनों मूर्तियाँ एक साथ हैं। मध्य में बड़ी मूर्ति तथा दोनों तरफ छोटी मूर्तियाँ हैं। कहा जाता है कि महर्षि वसिष्ठ ने यहीं ताराकी उपासना करके सिद्धि प्राप्त की थी। तन्त्रशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘महाकाल-संहिता के गुहा-काली-खण्डमें महाविद्याओंकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है, उसके अनुसार ताराका रहस्य अत्यन्त चमत्कारजनक है।
तारा देवी मंदिर, कांगड़ा (हिमाचल)
हिमाचल के कांगड़ा नामक स्थान पर ‘वज्रेश्वरी देवी’ शक्तिपीठ है। यहाँ देवी सती का बायां स्तन गिरा था। माता व्रजेश्वरी देवी को नगर कोट की देवी व कांगड़ा देवी के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ की अधिष्ठात्री देवी त्रिशक्ति अर्थात् त्रिपुरा, काली ओर तारा हैं।
प्रस्तुत लेख में माँ तारा से जुड़े विभिन्न रहस्यों को बताया गया है। यदि आपको लेख पसंद आया हो तो इसे शेयर करना न भूलें साथ ही नवीनतम लेख की जानकरी के लिए हमे सब्सक्राइब करें..🙏